हमारी परंपरा में एक भौतिकवादी दार्शनिक वो सारी बातें रखता है जो बातें पश्चिम में कई लोगों ने रखी। क्या जरुरी है कि हर आदमी मोक्ष के पीछे ही दौड़ता रहे। क्या जरुरी है कि हमारे लक्ष्य परलोक में हों। क्या इसी जीवन को इसी संसार को सुंदर बनाना पर्याप्त लक्ष्य नहीं हो सकता है। ऊपर सब कुछ शून्य-शून्य है। कुछ भी नहीं गगन में। धर्मराज जो कुछ भी है वह मिट्टी में, जीवन में एक अजीब कोलाहल, उस समाज में है कि संन्यास के साथ जो दिक्कत है वो ये कि समाज के सबसे अच्छे लोग कई बार समाज
से दूर निकल जाते हैं। चार्वकों को चार्वाक कहने की तीन व्याख्याएं हैं। चार्वकों के बारे में जितने सूत्र हमें मिलते हैं, मुख्य रूप से उसी किताब से मिलते हैं। मेरी तो नियति में लिखा हुआ है कि मेरी क्लिप ऐसी कटनी है बहुत सारी और उसके बाद हमले होने हैं मेरे ऊपर। आप सबका बहुत-बहुत स्वागत है। पहली बार हम लोगों ने ऐसी आडियंस को invite किया है जो दृष्टि से नहीं जुड़े हैं और मुझे बहुत खुशी है आप सबके चेहरे पर जो चमक है, जिज्ञासा है, उसकी बड़ी कीमत है मेरी निगाह में। तो मुझे उम्मीद है
कि ये चमक और जिज्ञासा सेशन के बाद भी बनी रहेगी, खत्म नहीं हो जाएगी। क्योंकि शुरुआत करना बड़ा आसान होता है किसी चीज को मुकम्मल अंत तक ले जाना मुश्किल काम होता है। आज जिस टॉपिक पर बात करनी है वो टॉपिक बहुत प्रिय है लोगों का, क्योंकि कमेंट बॉक्स में जो बार-बार नाम आ रहा था उसी टॉपिक का आ रहा था, वो है चार्वाक दर्शन। पीछे, एक महीना मैं वीडियो बना नहीं पाया, स्वास्थ्य की वजह से कुछ व्यस्तताओं की वजह से। अब कोशिश करूंगा कि महीने में कम से कम दो वीडियो मैं जरूर बनाऊं। उससे
ज्यादा मैं कहूंगा तो फिर बना नहीं पाऊंगा। मुझे उतना समय मिल नहीं पाता है, लेकिन महीने में दो मैं manage कर सकता हूं, उतना जरूर करता रहूंगा। और लगातार फिलॉसफी नहीं बनाऊंगा क्योंकि उससे यह खतरा है कि आप लोग कमंडल न उठा लें। तो एक-आध फिलॉसफी, एक-आध कुछ और। संविधान पे, लॉ पे, सोसाइटी पे कुछ ऐसा तो मिक्स करके। इंडियन फिलॉसफी में जो हमने थोड़ा सा पढ़ा था, इस सीरीज के दूसरे वीडियो में जिसका नाम था भारतीय दर्शन का परिचय - वेदों से ओशो तक। मैंने बताया था कि भारतीय दर्शन में कुल नौ दर्शन मोटे
तौर पर है। उनमें से छह आस्तिक हैं, तीन नास्तिक दर्शन हैं। आस्तिक दर्शन वही हैं जिनको हम हिंदू दर्शन षड्दर्शन या सनातन दर्शन कह देते हैं। इसमें सांख्य योग एक ग्रुप है न्याय वैशेषिक दूसरा है, मीमांसा वेदांत तीसरा है, इनको बाद में पढ़ेंगे हम लोग। जो नास्तिक दर्शन हैं वो तीन हैं, चार्वाक, जैन, बौद्ध। नास्तिक का मतलब जो वेदों को नहीं मानते, न कि ईश्वर को नहीं मानते। जो वेदों को नहीं मानते उसको नास्तिक कहते हैं और जो वेदों को मानते हैं वो आस्तिक होते हैं। भारतीय परंपरा में ऐसे classification है। और जो तीन नास्तिक
दर्शन हैं उनमें से एक बहुत प्रसिद्ध दर्शन है चार्वाक, वहां से हम बात शुरू करेंगे। और जब चार्वाक का नाम सुनते हैं जैसे मैंने आपसे चार्वाक कहा आप सब उत्साहित हो गए। उत्साहित क्यों हो गए, क्योंकि हम सब अंदर कहीं न कहीं चार्वाक ही हैं। हम ऊपर से बौद्ध हो जाते हैं। ऊपर से वेदांती हो जाते हैं, ऊपर से कभी जैन हो जाते हैं, लेकिन अंदर से हममें से अधिकांश लोग जीवन के ठीक-ठाक हिस्से में चार्वाक ही होते हैं। अपने चार्वाकपन को छिपाते रहते हैं। दबाते रहते हैं, वो भी जरूरी है। समाज में रहने की
मर्यादाएं हैं नियम है उन सबका भी ध्यान रखना बहुत जरूरी है, लेकिन चार्वाक को सुनकर मजा आता है। और जब मैं कहता हूं चार्वाक तो चार्वाक को लेकर जो छवि बनी हुई है, हमें ये भी समझना है कि वो छवि इतनी ठीक है नहीं। जो चार्वाक की छवि बनी हुई है वो छवि बनी हुई है इन दो सूत्रों से। और ये दो सूत्र जो हैं बहुत प्रसिद्ध सूत्र हैं, चार्वाकों के नाम से चलते हैं। पहला है यावत् जीवेत्, सुखं जीवेत जब तक जियो सुख से जियो ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत ऋण लेकर उधार लेकर भी पीना
पड़े तो पियो, लेकिन घी पियो। हालांकि वो पीते कुछ और थे लेकिन घी बोल रहे हैं यहां पर। घी पियो, भस्मी भूतस्य देहस्य और एक बार देह के भस्मीभूत जल जाने के बाद पुनरागमनं कृता, पुन: आगमन कृता: पुन: कहां आती है देह। शरीर फिर नहीं आता है। एक ही बार का जीवन है। उसी को भरपूर जीना है और इस जीवन में खूब भोग करना है। सुख अर्जित करने हैं, जरूरी हो तो उधार ले के करने हैं और मौज में रहना है, सुख से जीना है। ये पूरे भारतीय दर्शन में कोई दूसरा संप्रदाय नहीं कहता है।
भारत के नौ स्कूल्स में से आठ कहते हैं कि जीवन का अंतिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है। ये कहता है कि मोक्ष सिरफिरों का विचार है, कुछ नहीं रखा उसमें, सुख ही असली जीवन का ध्येय है, लक्ष्य है। इस वजह से इसकी आलोचना बहुत ज्यादा होती है। दूसरे में तो और खतरनाक तरीके से बोल रहा है। ये मदिरापान के बारे में समर्थन कर रहा है। पीत्वा पीत्वा पुन: पीत्वा, यावत्पतति भूतले पीते रहो, पीते रहो, पुनः पीत्वा, फिर पीते रहो, यावत, जब तक कि पतते, गिर पड़ो भूतले, जमीन पर। पीयो पीयो फिर पीयो जब तक कि
जमीन पर गिर ना पड़ो। और गिरने के बाद क्या करना है, उत्थाय च पुनः पीत्वा गिरने के बाद फिर हिम्मत समेट के उठना है। उत्थाय च पुनः पीत्वा उठो फिर पीयो, क्यों, क्योंकि पुनर्जन्म न विद्यते। क्योंकि ऐसी कोई विद्या नहीं है, ऐसा कोई ज्ञान नहीं है, जो दावा करता हो। कि पुनर्जन्म होता है, यही जीवन है यही काम करना है। पीना है गिरना है फिर उठना है फिर पीना है, फिर गिरना है। अब इन श्लोकों से या इन सूत्रों से चार्वाक दर्शन की एक खास छवि बन गई। बहुत नेगेटिव छवि है। यह भाव हमें पूरी
परंपरा में दिखता है। ऐसा नहीं कि यहां दिखता है और केवल भारत में दिखता है, ऐसा नहीं है। पश्चिम में भी दिखता है। हर हर देश की परंपराओं में ऐसे भाव दिखते हैं। आधुनिक काल में भी अगर देखें तो मुझे दो कवि ध्यान आए तो मैं उनकी कविता भी लिखकर ले आया कि आप चाहें तो उसको enjoy कर सकते हैं। 1870 के आसपास एक बहुत प्रसिद्ध कवि हुए भारतेंदु हरिश्चंद्र। कवि क्या लेखक ज्यादा थे। उन्होंने नाटक खूब लिखे कई तरह की रचनाएं लिखीं। उन्होंने एक नाटक लिखा भारत दुर्दशा, उसमें व्यंग्य गीत लिखा। उसमें मदिरा नाम
का करेक्टर लोगों को समझा के बोलता है, मदवा पीले पागल जीवन बीत्यो जात ब्रजभाषा में है, शायद आप समझ पा रहे होंगे। मदवा पीले पागल, जीवन बीत्यो जात बिनु मद जगत सार कछु नाहीं, मान हमारी बात। इस जगत में मद के बिना कोई सार नहीं हमारी बात मान ले, मदवा पीले पागल जीवन बीत रहा है। यह व्यंग्य में कह रहे हैं भारतेंदु, seriously नहीं कह रहे। यह कहना चाह रहे हैं कि भारत के लोग आमतौर पर इतने पीने के शौकीन हैं कि वो देश क्या समझेंगे। और एक कवि बहुत विख्यात हुए हरिवंश राय बच्चन, आप
जानते होंगे। उन्होंने पूरी किताब लिख दी, मधुशाला। मधु शायद, वो खुद उसके पक्ष में कभी न रहे। और दरअसल उस किताब में शराब जो मधु है उसका एक सांकेतिक अर्थ है। वो अध्यात्म का नशा ज्यादा है। पर दिखने में तो मधुशाला ही है। और उन्होंने ऐसी-ऐसी भी बातें लिखीं जिसमें से एक बात तो यहां तक लिखी कि सांप्रदायिकता का समाधान करना हो, सबको पब में बिठा दो, सांप्रदायिक होंगे ही नहीं। मुसलमान और हिन्दू दो हैं एक मगर उनका प्याला, वैसे अलग-अलग हैं, प्याला एक ही है दोनों का। एक मगर उनका मदिरालय एक मगर उनकी हाला।
हाला मतलब, शराब। दोनों रहते एक न जब तक मंदिर मस्जिद में जाते मंदिर-मस्जिद जाते हैं तो अलग हो जाते हैं, उसके पहले एक ही हैं। बैर बढ़ाते मंदिर मस्जिद मेल कराती मधुशाला तो मंदिर मस्जिद बंद करो, पब में बिठाओ लोगों को हरिवंशराय बच्चन जी, वो दरअसल ये कह नहीं रहे हैं, आध्यात्मिक अर्थ में संकेत कह रहे हैं कि दरअसल जो झगड़े हैं वो धर्म को लेकर हैं, मजहब को लेकर हैं और जो चीजें एक करती है वो अध्यात्म है यहां मधु का मतलब दरअसल अध्यात्म है लेकिन ये नाम उनके नाम से बड़ा विख्यात हुआ यह
छंद बहुत प्रसिद्ध हुआ। दरअसल चार्वाक ऐसे हैं नहीं, ये चार्वाकों के बारे में कुछ गलतफहमियां हैं और आप देखना चाहें तो मैंने ये दोनों छंद लिख दिए हैं सिर्फ आपकी जानकारी के लिए चार्वाक कौन हैं, इनका थोड़ा-सा हम पहले परिचय हासिल कर लें और थोड़ा सा उस background को भी समझेंगे क्योंकि दर्शन हो या कुछ भी विषय हो जब तक आप उस ऐतिहासिक स्थिति को न समझें आप उसकी जड़ को नहीं पकड़ पाएंगे। कुछ दार्शनिक, मैं तो दर्शन के विद्यार्थी रहा हूं लंबे समय तक। पॉलिटीकल फिलॉसफी में भी रहा हूं। मैंने सब कुछ पढ़ने के
बाद एक चीज समझी कि किसी दार्शनिक को समझना है, उसके देश काल की परिस्थितियां समझ लीजिए और खुद को वहां रखिए। आप पाएंगे कि आप खुद वो बोलने लग गए, जो वो बोल रहा था। क्योंकि हर व्यक्ति दरअसल अपने देश काल परिस्थितियों का byproduct होता है। चार्वाक भी थे, अब भी हैं। हम भी अपने समय के हिसाब से ही बोलते हैं जो हमारा समय हमारा स्थान सिखाता है। चार्वाक कौन थे, एक बात आपके मन में आ सकती है कि इनका नाम चार्वाक ही क्यों पड़ा। चार्वाकयों को चार्वाक कहने की तीन व्याख्याएं हैं। पता किसी को
नहीं है क्योंकि उस दौर का इतिहास पूरा मिलता नहीं है हमें, पूरे टेक्स्ट हमारे पास नहीं हैं। कुछ लोग कहते हैं कि चार्वाक शब्द चर्व धातु से बना है। धातु का मतलब होता है जो संस्कृत में root words होते हैं, जिससे क्रियाएं वर्डस बनती हैं उसको बोलते हैं रूट्स। चर्व का मतलब समझ सकते हो, होता है चबाना तो ये लोग चबा जाते थे। क्या चबा जाते थे। कुछ कहते हैं कि ये मुर्गा चबा जाते थे। बकरा चबा जाते थे, मछली चबा जाते थे। कुछ इनसे बहुत नाराज रहते हैं। वो बोलते हैं कि नहीं ये नैतिक
मूल्यों को ही चबा गए क्योंकि इन्होंने पूरे Ethics, morality को ही चबा लिया। इससे इनका नाम चार्वाक पड़ा, यह एक व्याख्या है। Interpretation है, हमें नहीं पता कि सच है कि झूठ, व्याख्या ऐसी है। पर जैसे ही चार्वाक का नाम मैंने बोला आप सबका चेहरा चमक गया। उस जमाने में भी चेहरा चमकता था, लोगों का। इसलिए कुछ लोगों ने कहा नहीं जो चार्वाक है वो दरअसल चारू प्लस वाक है। चारू का मतलब होता है सुंदर, beautiful, वाक मतलब अभिव्यक्ति, भाषा। ये लोग बड़ी सुंदर बातें बोलते थे। Interesting बातें बोलते थे। इतनी अच्छी बातें बोलते थे
कि लोग इनके दीवाने हो जाते थे। और दीवानों ने क्या कहा कि ये चारू वाक हैं बहुत प्रिय बोलते हैं, इसलिए इनका नाम क्या हो गया, चार्वाक हो गया। कुछ लोग कहते कि नहीं भई नहीं चार्वाक नाम का एक आदमी था और क्योंकि बाकी सब चार्वाक उसके followers थे चार्वाक एक व्यक्ति नहीं था, सैकड़ों व्यक्ति थे चार्वाक। ये ग्रुप का नाम है, एक व्यक्ति का नाम नहीं है। कुछ लोग मानते हैं कि चार्वाक एक पहला व्यक्ति था और बाकी सब उसके followers थे। उस व्यक्ति का नाम चार्वाक होने से और ये चार्वाक कौन था तो
कुछ लोग सवाल पूछते हैं कि दर्शन दिया किसने। इस दर्शन के संस्थापक या इस दर्शन को आगे बढ़ाने वाले लोग कौन हैं, आपको बड़ा आश्चर्य होगा। इस बात पर सहमति है कि इस दर्शन की स्थापना देवताओं के गुरु बृहस्पति ने की थी। इसलिए इसका एक नाम बार्हस्पत्य दर्शन भी होता है। तो लोग बड़ा चकित हो जाते हैं, भाई देवताओं के गुरु बृहस्पति ऐसा खराब दर्शन क्यों देंगे तो व्याख्या इस पर ये मानी जाती है कि देवताओं के गुरु ने ये दर्शन रचा था असुरों के लिए दानवों के लिए कि दानव लोग इसको पढ़ें भोग में,
सुख भोग में पागल हो जाएं और जब वो सुखों के पीछे पागल हो जाएंगे तो उनको हराना उन्हें पराजित करना, आसान हो जाएगा। इसलिए एक Utilitarian perspective से दर्शन गढ़ा गया था। और कुछ लोग कहते हैं कि इन्हीं बृहस्पति के शिष्य थे चार्वाक और इन्हीं के followers आगे चलकर चार्वाक होते गए। बृहस्पति हमारी परंपरा में एक नहीं हैं। हमारी परंपरा में बृहस्पति भी सैकड़ों के आसपास हैं। नहीं पता कि ये बृहस्पति कौन थे लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि ये बृहस्पति वही बृहस्पति हो सकते हैं, जिनका नाम वात्स्यायन था और ये वात्स्यायन वो व्यक्ति हैं
जिन्होंने कामसूत्र नाम के ग्रंथ की रचना की थी जो पूरी दुनिया में बहुत प्रसिद्ध ग्रंथों में से ग्रंथ है और कामसूत्र के लेखक वात्स्यायन भी चार्वाक व्यक्ति थे। लेकिन वात्स्यायन संभवतः अगर इनसे अलग हैं तो थोड़े बाद के रहे होंगे, लेकिन एक व्यक्ति हुआ 6th सेंचुरी बीसी में इसी दर्शन का जिसका बहुत अहसान है। चार्वाक दर्शन पर उसका नाम था अजित केश कंबली। पता नहीं आपने इसका नाम कभी सुना है या नहीं सुना है। बहुत ही अलग किस्म का आदमी था। इसका नाम अजित इसलिए पड़ा कि इसको हराना लगभग नामुमकिन था, तर्कों के मामले में।
प्रसिद्ध था कि इससे कोई भिड़ा तो वही ही घायल हुआ, तर्कों में, ऐसे नहीं, पहलवान नहीं था दार्शनिक था। केश कंबली हमारी परंपरा में उन लोगों को बोलते हैं जो human hair से बने हुए कंबल पहनते हैं। इसमें थोड़ा-सा मतभेद होता है कि ये व्यक्ति इस अर्थ में केश कंबली था या नहीं था। कई परम्पराओं में तो मिलता है, मुझे थोड़ा सा doubt है इस मामले में। क्योंकि आपको पता है कि जो केशों से कंबल बनता है वो क्यों पहना जाता है। एक गुण है। तितिक्षा। तितिक्षा का मतलब होता है गर्मी,सर्दी झेलने की ताकत। अगर
आप अध्यात्म के रास्ते पर जाएंगे तो शंकराचार्य ने कहा है कि तितिक्षा, पहले देख लो कि अंदर है कि नहीं है। बहुत गर्मी में भी आपको परेशानी न हो, बहुत सर्दी भी आपको बेचैन न करे। इस गुण को बोलते हैं तितिक्षा। और केश कंबल धारण करने का purpose है इस गुण का विकास करना क्योंकि केशों से बना कंबल गर्मियों में और गर्म हो जाता है और सर्दियों में और ठंडा हो जाता है। तो temerature है जीरो के आसपास आपने वो कंबल पहना अब कंबल के अंदर टेंपरेचर माइनस 10 हो गया, झेलो इसको। गर्मियों में 40
से आपने पहना 50 हो गया। अपनी क्षमताओं को बढ़ाने का तरीके हैं, लेकिन क्योंकि चार्वाक लोग सुखवादी थे इसलिए doubt होते हैं कि अजित केश कंबली, इस अर्थ में केश कंबली हैं या नहीं है। तो इतिहास से बहुत सारी बातें हमें नहीं पता तो उसमें हम क्या कर सकते हैं। बस idea होना चाहिए। तो मुख्य रूप से दो व्यक्तियों के नाम ध्यान रखिए। अजित केश कंबली और वात्स्यायन। यह दो व्यक्ति इस परंपरा के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति माने जाते हैं। चार्वाक का एक दूसरा नाम लोकायत भी है क्योंकि दो वजहों से, एक तो यह दर्शन अकेला
दर्शन भारत में है जो इह लोक, इह लोक समझते हैं क्या होता है। यह वाला लोक, हमारा जो this world है, ये वर्ल्ड। इहलोक को ही मानते हैं, इहलोक के beyond कुछ नहीं मानते ना ईश्वर है, ना आत्मा है, ना स्वर्ग है, ना नरक है, ना मोक्ष है। कुछ नहीं है, सब गप्पे हैं इनके हिसाब से और क्योंकि यह पूरी भारतीय परंपरा का अकेला स्कूल of thought है जिसने कहा कि इस जगत के beyond कुछ नहीं है। तो लोकायत नाम पड़ गया। इस लोक को मानने वाले। कुछ लोग कहते हैं कि लोकायत इसलिए भी है
कि लोक जीवन में इनका प्रभाव बहुत ज्यादा था, आम आदमी इनसे बहुत प्रभावित हो गया था, इसलिए भी लोकायत कहते होंगे लेकिन जो सबसे महत्पूर्ण बात है वो ये चार्वाक सबसे ज्यादा निंदित दर्शन है। सबसे ज्यादा criticized philosophy है, लेकिन हमें उसको एक मामले में benefit of doubt देना पड़ता है। क्यों देना पड़ता है। हमारे पास चार्वाकों के बारे में कोई भी authentic source विद्यमान नहीं है, और जब authentic source विद्यमान है ही नहीं तो हम कैसे जानते हैं उनके बारे में, सवाल ये है। कहते हैं कि जब इन लोगों ने लिखा, ये लोग बहुत
गुस्से वाले आदमी थे, चार्वाक। ये उन लोगों में नहीं हैं जो बहुत संभल-संभल कर बोलते हैं। ये खुलकर बोलने वाले थे, बहुत मुखर लोगों में। आज के समाज में भी आप देखेंगे कुछ लोग पॉलिटिक्स में या सोसायटी में बहुत मुखर होकर बोलते हैं। किसी के भी विरोध में बोलेंगे, मुखर होकर बोलेंगे। कुछ लोग शालीन तरीके से बात करते हैं। चार्वाक मुखर लोग थे, खुलकर बोलते थे, aggressive लोग थे। इनका aggression किसकी तरफ था। वेदों की तरफ था। कर्मकांड करने वाले पुरोहितों की तरफ था। तो खूब उनको ऊटपटांग बोलते थे। एक जगह तो लिखा है भांड,
धूत, निशाचर: कि जो लोग कर्मकांड करते हैं वो भांड है धूत हैं, निशाचर हैं, ऐसी बात लिखी है इन्होंने। इससे जो वैदिक रास्ते पर चलने वाले लोग थे, कर्मकाण्डी लोग थे, पुरोहित लोग थे, उनसे वह नाराज रहते थे। इतिहास के कुछ लोग मानते हैं कि संभवतः इसी तनातनी में इन्होंने जो मूल रूप से लिखा होगा उसे नष्ट कर दिया गया होगा क्योंकि हमारे पास वो sources नहीं मिलते हैं। अब वो तो नष्ट हो गए तो हम जाने कैसे इनको सोच के देखिए कि ये छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास हुए अजित केश कंबली। ये टाइम
का reference रखेंगे तो आपको पूरी कहानी समझ में आएगी। मुझे उम्मीद है कि आप लोग बीसी समझते हैं। Before crrisht क्या है समझते हैं, ईसा पूर्व, है ना। इसलिए ईसा पूर्व में मैं कहूंगा कि छठी शताब्दी, ईसा पूर्व के बाद पांचवीं शताब्दी, तिब्बत माफी तो ये मत सोचना 6 के बाद 5 क्यों आया। ईसा पूर्व है। ईसा के पूर्व से पीछे आ रहे हैं इसलिए छह के बाद पांच आएगा, फिर चार आएगा, फिर तीन आएगा। और ईसा पश्चात में चलेंगे तो 1, 2, 3, ऐसे आगे बढ़ेगा, है ना। 6th सेंचुरी bc इस दुनिया के लिए
कितनी महान शताब्दी है, अब सुनेंगे तो दंग रह जाएंगे। मेरे तो मन हुआ कि एक पूरा वीडियो इसी पर बनाऊं, 6th सेंचुरी बीसी पर ही। चाइना हो, जापान हो, ग्रीस हो, भारत हो, इस्रराइल हो। इन सारे देशों में दर्शन की आग लग गई 6th सेंचुरी बीसी में। पूरी आग, आंधी, तूफान आ गया है। और ये सारा तूफान अगर एक ही सेंचुरी में दिख रहा हो तो आश्चर्य तो होता ही है, कुछ तो खास बात हुई है उस समय। 6th सेंचुरी बीसी में अजित केश कंबली हुए। इसी समय बुद्ध हुए, इसी समय महावीर हुए इसी समय
चीन में कन्फ्यूशियस हुआ। इसी समय चीन में लौतसे से हुआ। इसी समय जापान का शिंतो धर्म बना। इसी समय ग्रीस में पहला फिलॉसफर थालेज़ या थेल्ज़ हुआ। पैथागोरस, पारमानाइडीज, हेरक लाइट्स, ये सब एक ही समय के लोग हैं। सब एक साथ जिंदा थे। ठीक इस सेंचुरी में जो आज का इस्रराइल है वहां हजरत मूसा या मोसिस जिनको बोलते हैं। उनकी मृत्यु तो 1300 बीसी में हो चुकी थी। पर उनके जो ज्ञान की बातें थी, उनको पांच पुस्तकों के रूप में जिसको हम तोराह कहते हैं, संकलन किया गया, वो भी छठी शताब्दी से पूर्व के आसपास
की बात है। आज के इसाई भी जिसको ओल्ड टेस्टामेंट कहते हैं उसका उसमें उसका महत्व है और यहूदियों में तो है ही। 24 में से 5 किताबें हजरत मूसा की लिखी हुई हैं, वो सभी सब कुछ छठी शताब्दी ईसा पूर्व में हो रहा है। ऐसी क्रांति हुई है उस दौर में। उसी क्रांति में ये अजित केश कंबली नाम का व्यक्ति भी हुआ। अब 6th सेंचुरी बीसी में जो कहा गया लिखा गया और यह ध्यान रखना है, चार्वाक लोग छठी शताब्दी ईसा पूर्व पहली बार नहीं हुए हैं। हमारे पास वैदिक साहित्य में ज़िक्र आता है। सुख
वाद का जड़वाद का, जो इनका विचार है। उपनिषदों में इनका नाम लिखा हुआ मिला, इसलिए संभावना है कि शायद ये कुछ और पहले हुए होंगे। लेकिन यहां पर आकर एक बड़ा आचार्य इनके पक्ष में खड़ा हुआ, इसलिए यहां से नाम नजर आता है। इनके बारे में हमारे पास जो पहली किताब मिलती है वह मिलती है 9th सेंचुरी AD में 1500 साल के बाद की पहली किताब मिलती है। एक जय राशि भट्ट नाम के आदमी हुए, उनकी किताब है तत्वो विप्लव सिंक। उसमें थोड़ा सा वर्णन मिलता है कि ये कौन थे। वो पहला टेक्स्ट है हमारे
पास। इसके बाद हमारे पास लगभग 11th सेंचुरी में दूसरी किताब मिलती है। एक नाटक है, प्ले है, रूपक है संस्कृत का। प्रबोध चंद्रोदय कृष्ण मिश्र ने लिखा था। वो अकेली रचना है जो इनके पक्ष में लिखी गई है। छोटा सा एकदम, बहुत छोटा सा। और इनके बारे में जो 90 पर्सेंट Information मिलती है, कहां से मिलती है, 14th सेंचुरी में एक व्यक्ति हुए विजय नगर एंपायर, आप जानते हैं विजय नगर एंपायर को। जब हरीहर राय और बुक्का रा. स्थापित कर रहे थे उनके गुरु थे एक व्यक्ति, श्रृंगेरी मठ के भी गुरू थे। उनका नाम था
माधवाचार्य विद्यारण्य। उन्होंने किताब एक लिखी, बड़ी अच्छी सी किताब लिखी। उस किताब का नाम था, सर्व दर्शन संग्रह। भारत के सभी दर्शनों के बारे में विस्तार से लिखा। चार्वाकों के बारे में जितने सूत्र हमें मिलते हैं मुख्य रूप से उसी किताब से मिलते हैं, लेकिन उसमें क्या लिखा हुआ है, उन्होंने कहां से ढूंढा। चार्वकों ने क्या कहा, हमें नहीं पता। चार्वकों की आलोचना करने के लिए बाकी दार्शनिकों ने जो लिखा उसमें उनके बारे में जिक्र किया। वहां से पता लगता ही वो क्या बोलते थे। जैसे मान लीजिए बौद्ध लोग चार्वाकों की आलोचना कर रहे हैं,
कह रहे हैं, चार्वाक ये कहता है जबकि सही बात ये है। अद्वैत वेदांत कह रहा है कि चार्वाक तो मूर्ख लोग ये कहते हैं। इतना भी नहीं समझते हैं, सच तो ये है। जहां जहां उनका criticism है वहां से पता लगते है कि वो क्या बोलते थे और यह हमेशा ध्यान रखना है, जब हम को criticize करते हैं तो हम कई बार बहुत honest नहीं हो पाते। हम उसकी बात को उसके मंतव्य के साथ exactly नहीं लेके आते। हम उसकी बात का कुछ हिस्सा गायब कर देते हैं। हम भी ऐसा करते हैं, उस समय के
लोग भी करते होंगे। ऐसा थोड़ी न है कि तब भगवान थे, अब दानव लोग रहते हैं। हमें भी तो पढ़े लिखे समझदार लोग हैं भाई तो उस समय भी ऐसे लोग थे। जब हमें किसी की आलोचना करनी होती है हम उसका perspective कभी नहीं लेकर आते। कहा जाता है कि हर व्यक्ति दूसरों के मामले में जज और अपने मामले में वकील होता है। अपना वकील बनकर घूमता है हर आदमी और दूसरों के मामले में तुरंत जज बन जाता है कि ये तो है ही गंदा, ये तो है ही ऐसा। तो जब आप किसी के criticism
से किसी को समझेंगे, ऐसा आपके जीवन में भी होता होगा न कि X नाम का आदमी आप नहीं जानते, y को आप जानते हैं, वाई ने आपको बताया, अरे यार बड़ा घटिया इंसान है, उससे मिलना मत कभी भी। एक इमेज पहले ही बन गई आपके दिमाग में, अब जीवन में पहली बार वो जब मिलेगा उसको तो पता भी नहीं है। उसे कई महीने तो लग जाएंगे उस इमेज को ब्रेक करने में ही। तब जाकर आप neutral होकर उसके बारे सोच पाएंगे। यह इनके साथ भी हुआ। हो सकता है कि सच में इन्होंने ऐसी ही बातें
कही हों। हो सकता है इनकी बातों को distort करके अगर पेश किया गया हो, इसलिए दर्शन की किताबों के लिखने वाले चाहे डॉ. राधाकृष्णन बहुत महान दार्शनिक हुए भारत में, जो राष्ट्रपति भी थे हमारे देश के। उन्होंने भी कहा कि जब चार्वाकों की बात होगी तो हमेशा benefit of doutbt उनको देना पड़ेगा। हो सकता है कि हम उनके बारे में ठीक से न जानते हो। प्रोफेसर हिरयन्ना बहुत प्रसिद्ध आचार्य हुए, उन्होंने ये बात कही कि चार्वाकों के मामले में हमेशा ध्यान रखना है कि आप उनके बारे बहुत कम जानते हैं और गालियों के रूप में
जानते हैं। ये ऐसी बात हुई कि किसी को चार गालियां दे रहा था, आपने वही नोट कर लीं कि ये आदमी ऐसा है। और आप सबको बताते चल रहे हैं कि ये आदमी ऐसा है, ऐसा है, ऐसा है, ऐसा है। चार गालियां थी, ये क्या तरीका हुआ जानने का। और इसलिए पहले से निष्कर्ष लेके नहीं चलेंगे बल्कि हम सोचेंगे कि ये लोग कैसे रहे होंगे, अंदाजा लगाएंगे। अब देखिए चार्वाक फिलॉसफी क्या है। उससे पहले हल्का सा 6th सेंचुरी बीसी के भर में एक मोटा मोटा खाका दिमाग में बना लीजिए कि उस समय हुआ क्या था,
ये आग कैसे लगी, ये क्रांति क्यों हुई? वैदिक साहित्य पहले लिखा जा चुका था जो वैदिक लिटरेचर से मेरा मतलब मुख्य रूप से चार वेदों से है। और कई लोग उनको तीन ही वेद मानते हैं। कुछ लोग अथर्ववेद को वेद नहीं मानते। वो मानते कि उसमें बाकी तीनों का repeatation ज्यादा है। इसलिए कई मध्यकालीन दार्शनिकों ने तीन वेदों का जिक्र किया, चार का जिक्र नहीं किए। चार्वाकों ने भी तीन वेदों का जिक्र किया है जब वो विरोध करते हैं। लेकिन तीन का मतलब ये नहीं कि वो तीन ही मानते हैं। अथर्ववेद को अलग वेद मानने
के बजाय उसका हिस्सा मान लेते हैं। वैदिक साहित्य लिखा गया खूब लोग वेदों को फॉलो कर रहे थे और वेदों के बाद क्या लिखे गए थे, उपनिषद। लेकिन सारा खेल उपनिषद के बाद का खेल है। अगर आप वेदों और उपनिषदों में अंतर करेंगे ध्यान से तो वेद में emotions ज्यादा है जिज्ञासा ज्यादा है। वेदों में बहुत सारे ईश्वर है। इन्द्र एक ईश्वर हैं। वरुण एक ईश्वर हैं। देवियां भी हैं, सविता एक देवी है, उषा एक देवी है। बहुत सारे देवी, बहुत सारे देवता जो कि दुनिया में केवल भारत में नहीं हुआ है, भारत में शायद
सबसे पहले हुआ होगा। आप जापान में देखेंगे शिंतो धर्म में देवी केन्द्र में है और वहां 80 लाख देवी देवता माने गए हैं। आप मिस्र में जोकि इजीप्ट है, उसका धर्म देखेंगे सबसे शुरुआती धर्मों में से एक माना जाता है। वहां सूर्य को देवता मानते हैं। रा बोलते हैं रा, रा है, अमन है। वहां बहुत सारे ईश्वर हैं। बेबिलोनिया जो कि बहुत पुरानी सभ्यता मानी जाती है, वहां देखेंगे वहां माड्रूक एक ईश्वर है और बहुत सारे ईश्वर हैं वहां पर भी। ग्रीक religion में जाएंगे। वहां बहुत सारे ईश्वर हैं। jews है जैसे अपोलो है। रोमन
religion में जाएंगे तो वहां ज्यूपिटर है, मार्स है। यह सब ईश्वर हैं। सभ्यता की शुरुआत में लगभग हर समाज बेचैन था कि दुनिया कैसी चल रही है और सबसे common sense क्या करती थी उस समय के सूर्य दिखा, ये हमें रोशनी देता है, गर्मी देता है। सूर्य को हमने कई सभ्यताओं में देवता माना गया। चंद्रमा को देवता माना गया, जल को देवता माना गया। अग्नि को देवता माना गया। ये एक सामान्य ट्रेंड है जो दुनिया के बहुत सारे धर्मों के शुरुआती स्तर में दिखता है, वेदों में भी दिखता है। जब बहुत सारे ईश्वर हुए तो
स्वाभाविक प्रश्न क्या आता है, हर सभ्यता को आता है। कि भई ये तो बहुत सारे हैं, इनमें कोई लिंक तो होना चाहिए। तो हमारे वेदों में हल्का हल्का संकेत आने लग गया था। ऋग्वेद में ही संकेत आ गया था, एकम् सब विप्रा बहुधा वदन्ति, अग्नि यम मात्रेशवान्माहू। एक ही सत्य है, एकम सत विप्रा विप्र मतलब जो ब्राह्मण लोग हैं। ज्ञानी लोग हैं, बहुधा वदन्ति भिन्न भिन्न तरीके से कहते हैं, उसे अग्नि कहो, चाहे यम कहो, चाहे मातेृश्वा, मातेृश्वा एक देवता का नाम था, या महो कह लो, अग्नि यमम मातेृश्वा नमाहू। ऐसा अन्य सभ्यताओं में भी
धीरे धीरे होने लगा कि अनेक ईश्वर से एक ईश्वर की तरफ यात्रा दुनिया के अधिकांश समाजों में समय के साथ हुई। लेकिन वेदों में क्या था कि चिंतन उतना गहरा नहीं था। समस्याएं केंद्र में थी, भई जिंदा रहना है, संघर्ष बहुत ज्यादा है। पूजा करो, ईश्वर को मनाओ प्रार्थना करो और वैदिक प्रार्थनाओं में और औपनिषदिक प्रार्थनाओं में जमीन आसमान का अंतर है। वैदिक प्रार्थनाओं में क्या है हमें बल दो, हमें शक्ति दो ताकि हम शत्रु को पराजित कर सकें। हमें लंबी उम्र दो, हमें स्वास्थ्य दो हमारे बैल मोटे ताजे हों। हमारे घोड़ों में शक्ति ज्यादा
हो। यह पूजाएं ज्यादा हैं, जो कि स्वभाविक है। उपनिषद तक आते आते ऋषि मुनि जंगलों में बैठकर गहरी तपस्याएं करने लगे थे, बहुत गहरा चिंतन हो गया था। वैदिक काल के लोगों को नरक वरक की चिंता नहीं थी। स्वर्ग के बारे में बात होनी शुरू हुई थी, नरक की बात नहीं हो रही थी। उपनिषद में आके इतना गहरा चिंतन हुआ कि जीवन क्या है, मर जाएंगे तो क्या होगा। वेदों में पुनर्जन्म का जिक्र हल्का हल्का है, उपनिषदों ने बहुत विस्तार में उसको कर दिया। पुनर्जन्म, मोक्ष, कर्म, सिद्धांत, ये सब उपनिषदों में ज्यादा ठीक से हुआ।
उसका असर क्या हुआ बहुत सारे लोग जो इन बातों को सुनते थे, संन्यासी हो जाते थे, वैराग्य में चले जाते थे। वेदों में वैराग्य का भाव नहीं है। उपनिषद में वैराग्य का भाव है। वेद बहिर्मुखी हैं, extrovertive हैं। उपनिषद interovertive हैं, अंतर्मुखी हैं। अपने अंदर तलाशो और वेद बाहर तलाशने की बात कर रहे थे। एक अजीब कोलाहल उस समाज में है 6th सेंचुरी, क्योंकि उपनिषदों का समय यही है। उस समय compile हो रहे उपनिषद, हो क्या रहा है। बहुत सारे लोग वैदिक रास्ते पर चल रहे हैं। कर्मकांड, बलि प्रथा उस सब में एकदम मस्त हैं,
खुश हैं। और जिनको नहीं खुशी मिल रही, वो उपनिषद के रास्ते पर चल रहे हैं। वो ज्ञान में डूबे हुए हैं, वैराग्य की रास्ते पर, घर छोड़कर चले गए हैं। स्वामी विवेकानंद ने भी एक बार अमेरिका में जिक्र किया एक भाषण में, ये जो दिनकर हैं, उन्होंने संस्कृति के चार अध्याय किताब लिखी उसमें इसको mention किया कि संन्यास के साथ जो दिक्कत है वो ये कि समाज के सबसे अच्छे लोग कई बार समाज से दूर निकल जाते हैं। यह स्वामी विवेकानंद ने ये बात कही है, अमेरिका के एक भाषण में। अब समाज में कोलाहल क्या
है कि कुछ लोग सामान्य कर्मकाण्डों में उलझे हैं, कुछ लोग समाज से वैराग्य लेकर भाग रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जिनको इन दोनों रास्तों से आनंद नहीं मिल रहा। उनको बेचैनी हो रही है। प्रश्न कुलबुला बुला रहे हैं। आत्मा होती है कि नहीं होती, ईश्वर होता कि नहीं होता, हम मरेंगे तो पुनर्जन्म होगा कि नहीं होगा, खत्म हो जाएंगे। ये पृथ्वी कहां से आई, आसमान कहां से आया। और ये प्रश्न जैसे आपको परेशान करते हैं। अभी आप कह रहे थे ना कि उत्तर नहीं मिलता उनको भी नहीं मिल रहा था भाई। कब से नहीं मिल
रहा है उत्तर, हर दौर के लोग परेशान हैं। और तब एक आंदोलन शुरू हुआ। उस आंदोलन का नाम है श्रमण आन्दोलन। यह शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। 6th सेंचुरी बीसी के आसपास। श्रमण का मतलब क्या होता है। श्रमण का सही मतलब है वो व्यक्ति जो seeker है, जो खोजी है, शोधार्थी है, अनुसंधेष्तु है, ढूंढना चाहता है। प्रश्न बेचैन करते हैं, उसको उत्तर नहीं मिल रहे, उनको श्रमण कहा गया। और देखते देखते क्या हालत हुई श्रमणों के, अच्छा ये श्रमण वो हैं जिनको वैदिक उपनिषदिक रास्ता पर्याप्त नहीं लग रहा। उनको लगता है नहीं कुछ और देखने की
जरूरत है और देखते देखते छठी शताब्दी ईसा पूर्व में 63 ऐसी संस्थाएँ बन गई जो श्रमणों के भिन्न भिन्न लोगों की संस्थाएं थीं। 63 तरह के लोग अलग अलग तरीके से इस संसार की व्याख्या करने में लगे हुए थे। कोई कुछ कह रहे, कुछ कह रहे इन 63 में से छह या सात बहुत प्रसिद्ध हुए। मैं सात इसलिए कह रहा हूं कि किताबों में छह मिलेगा क्योंकि बौद्ध दर्शन की किताबों में छह का जिक्र मिलता है जबकि बौद्ध दर्शन खुद भी इनमें से एक था। उसको काउंट कर लेंगे तो सात हो जाएंगे। सात ऐसी श्रमण
परंपराएं हैं। जिन लोगों ने ये सोचा बहुत मौलिक तरीके सोचा कि भई ये दुनिया कैसे बनी। इनमें से एक रास्ता महावीर का है जिसको हम जैन धर्म या जैन दर्शन कहते हैं। महावीर का एक नाम निर्ग्रंथ भी चलता है। निर्ग्रंथ का मतलब जिसने अपनी गांठें खोल दी हों, ग्रंथियां खोल दी हों। तो वहां निर्ग्रंथ नाथ पुत्र नाम से एक शब्द चलता है लोग मानते हैं कि उन्हीं के बारे में बात चल रही है श्रमण परंपरा में। एक व्यक्ति जो छह में नहीं आता है, लेकिन वैसे तो आता ही है, वो गौतम बुद्ध थे। बौद्ध दर्शन
भी चला। वो भी श्रमण परंपरा है। एक व्यक्ति उसी समय कौन हुआ अजित केशव कंबली, जिसका जिक्र मैंने किया,उससे कौन सी परंपरा चल पड़ी, चार्वाक परंपरा चल पड़ी। ये तीन दर्शन भारत में बहुत प्रसिद्ध हो गए। इन तीन को ही नास्तिक कहते हैं। चार और हैं जो बहुत प्रसिद्ध नहीं हुए लेकिन बहुत interesting मत उनके भी हैं। एक एक वाक्य में जान लेंगे,तो आप समझ पाएंगे कि भारत में दर्शन की परंपरा कितनी समृद्ध है। यूरोप भारत के सामने इस मामले में बौना है, बच्चा है बहुत। क्योंकि हमने इतनी गहरी बातें उस समय सोच ली हैं
जितनी गहरी बातें और यूरोप बाद में आगे बढ़ा। गोल्डन एज में यूरोप में फिलॉसफी का विकास ज्यादा हुआ, उस समय हमारा नहीं हुआ। पर ancient time में हमारा दर्शन दुनिया के किसी भी दर्शन से बहुत बेहतर लेवल पर है। इनमें से एक व्यक्ति था जिसने संप्रदाय चलाया आजीवक, और इसका जो व्यक्ति था उसका नाम था मक्खाली या मखली गोशाल। कहते हैं कि तिरुचिरापल्ली जो तमिलनाडु का एक स्थान है, वहां एक गोशाला में इसका जन्म हुआ था। ये उत्तर भारत आया महावीर के साथ रहा, छह सात साल तक महावीर का शिष्य बनकर रहा। पर बाद में
इसको लगा कि नहीं जीवन या समझ वो ठीक नहीं है। इसने एक विचार दिया। नियतिवाद, नियतिवाद को अंग्रेजी बोलते Determinism, और उसका मतलब क्या होता है। इसका मतलब ये है कि दुनिया में सब चीजें पहले से तय है। आप अपनी इच्छा से पत्ता भी नहीं हिला सकते हैं। अब मेरे कहने की बाद आप जो ऐसे-ऐसे कर रहे हैं, ये भी आप नहीं कर रहे हैं,ये भी कोई करवा रहा है आपसे। Everything including your smile is not because of you, आप तय नहीं करते हैं। अच्छा फिलॉसफी की खूबसूरती क्या है कि नियतिवाद को भी साबित करना
आसान काम है। किसी दिन इसमें पढ़ेंगे जब पश्चिम एस्पिनोजा ने इसका विचार दिया। 18th सेंचुरी के आसपास दिया और यहां 6th सेंचुरी इसी में आ गया, देखिए। 2400 साल बाद आ रहा है वहां पर। जिस दिन इस पर बात होगी, मैं आपको उनकी तरफ से समझाऊंगा कि वो क्या कहना चाह रहे हैं। और मैं दावे से कह रहा हूं कि आपको सांप सूंघ जाएगा उस दिन, सवाल नहीं सुझेगा कोई। क्योंकि आप पाएंगे अब इसके बाद क्या सवाल पूछना, सब तो साबित ही हो गया। जब मैंने पहली बार फिलॉसफी पढ़ा तो मैं इतना बेचैन रहता था।
एक दिन एक फिलॉस्फर पढ़ा, मुझे लगा अंतिम सत्य मिल गया। दो दिन बाद अगला पढ़ा, नहीं यार अंतिम तो ये वाला है। वो तो सेकंड लास्ट था। और हर दार्शनिक को पढ़कर लगता है कि अंतिम तो ये वाला है। और यही तो मजा है। जब आप बहुत सारे perspective जानते हैं। तो आपको मजा ज्यादा आता है। Determinism के बाद एक विचार उस समय कुछ लोगों ने दिए जिसको बोलते हैं शाश्वतवाद। यह उपनिषदों से मिलता जुलता विचार था Eternalism कहते हैं। इसका मतलब है कि भाई दुनिया में कुछ भी खत्म नहीं होता है, जो है permanent
है और ये बात कहने वाला एक व्यक्ति था। उसको बोलते हैं पाकुध कात्यायन। इसका नाम भी कहीं कहीं आपको सुनने को मिलेगा। पाकुड कटकायन, कच्चायन, कात्यायन, तीनों नाम चलते हैं। कहीं आप इतिहास में इनका जिक्र सुने तो समझ जाइएगा, क्या कहना चाह रहे थे। एक व्यक्ति और आगे बढ़ गया। उसने जो विचार दिया उसको कुछ लोग अक्रियावाद कहते हैं, लेकिन अंग्रेजी में अगर उसको हम लिखें तो Amoralism एक विचार था। आपके मन में ये सारे विचार कभी कभी आते होंगे। Amoralism सुनेंगे तो आप कहेंगे अरे ये तो हमारे मन में भी आता है। Amoralism का
मतलब है कि दुनिया में कोई भी कार्य नैतिक अनैतिक नहीं होता है। ये सब कहने की बाते हैं। लोगों ने अपने अपने ढांचें गढ़ लिए अब कितनी interesting बात है। आप अगर बकरा काट रहे हैं तो इस्लाम में नैतिक है, जैन दर्शन में अनैतिक है। कैसे तय हो कि नैतिक है कि अनैतिक। ऐसी हजार चीजें हो सकती हैं। आप पूरा अपना चेहरा ढक के चलते हैं तो कुछ देशों में वो नैतिकता का चरम स्तर है, कुछ में जेल हो जाती है, कैसे decide करें। क्या objective लें, absolute sense मैं किसी भी एक कार्य को नैतिक
या अनैतिक कह सकते हैं, नहीं कह सकते हैं। और इसलिए इन भाई साहब ने कहा, Amoralism का विचार जिन्होंने दिया उसका नाम था, पूर्ण कश्यप या पूर्ण कसप। यह खुद को बोलते थे कि मैं omniscient हूं, सर्वज्ञ हूं, मैं सब जानता हूं। और दर्शन में जिसने बोल दिया मैं सर्वज्ञ हूं, इसका मतलब, वो उसने सुकरात को नहीं पढ़ा अभी। ये तो मूर्खता है ना,सब कैसे वो जान सकता है। और अंत में ये आदमी खुद पानी में डूब के मरा, सुसाइड किया। ऐसा कहते हैं क्योंकि उसको लगा कि अब कुछ जानने को बचा ही नहीं। अब
मैं क्यों टाइम वेस्ट का रहा हूं अपना, जब सब जान ही लिया तो अब ठीक है, चलते हैं, बहुत हुआ। खैर कुछ नैतिक नहीं है, कुछ नैतिक नहीं है,यहां तक कहा कि यदि आप हजारों लाखों इंसानों की हत्या करके लाशों को ढेर खड़ा कर देंगे तो भी अनैतिक नहीं है। यदि गंगा नदी के तट पर खड़े होकर दान पुण्य कर रहे हैं इससे धेले भर का फायदा नहीं होने वाला, ये सब ढकोसले हैं। यह विचार पहली बार इस शताब्दी में हमारे सामने आता है, और इसी समय जो एक अंतिम विचार है। देखिए पश्चिम में भी
काफी बाद में हालांकि पश्चिम में उस समय भी आया उसे कहते हैं वो वह Agnosticism, जिसे जिसे हिंदी में यहां बोला गया अज्ञान संप्रदाय एक व्यक्ति थे संजय बिल्खी पुत्त इतनी गहरी बात कह दी है 6th सेंचुरी बीसी में कुछ भी कर लो कुछ नहीं जान सकते। जान ही नहीं सकते। लोगों ने पूछा आपकी राय क्या है, बोले न तो मेरी राय ये है, ना मेरी राय इसके खिलाफ है, न दोनों मेरे राय है। न दोनों के खिलाफ मेरी राय है, मेरी कोई राय नहीं है। मैं कोई फैसला करूँगा ही नहीं। अब interesting बात ठीक
ये बात इनके सौ साल बाद पश्चिम में एक विचारधारा आई sophist, वो कह रहे हैं। Kant 8th सेंचुरी में पश्चिम में जर्मनी में ये बात कह रहे कि कुछ जान ही नहीं सकते,कितनी भी ताकत लगा लो, जान नहीं सकते। और मेरा अपना विश्वास भी इस विचारधारा में है कि अंतत: absolute facts को आप नहीं जान सकते। ये बात इतना पहले लोगों ने कह दी है। और लोगों ने उससे पूछा फिर क्या करें? बोले क्या करना है, सामान्य जीवन जीते रहो। पर जान कुछ नहीं सकते भाई। इस पूरी गहमागहमी के बीच जो परंपरा सबसे प्रसिद्ध हुई
उस परंपरा का नाम हो गया चार्वाक। भले इन दो को छोड़कर, इन सबकी तुलना ज्यादा प्रसिद्ध हुई, उनका नाम हुआ चार्वाक। और यहां से देखिए कि चार्वाक क्या चीज हैं। अब चार्वाकों का विचार थोड़ा सा हम समझ सकते हैं। देखिए मैंने एक बार आपसे कहा था कि किसी भी फिलॉसफी को समझना हो तो तीन बातों पर गौर करना चाहिए, ताकि आप उसका पूरा सिस्टम समझ लें। अब मैं कोशिश करूंगा कि यूपीएससी के लेवल से बहुत नीचे करके चीजों को क्योंकि यूपीएससी में जो सवाल आते हैं, वो पढ़ाऊंगा तो आप अभी भाग जाएंगे यहां से। तो
उस लेवल पर तो जाने का मतलब ही नहीं। हम तो वो सब समझेंगे जो एक आम जिज्ञासु को मन में भाव आते हैं कि क्या क्या हुआ हमारे इतिहास में। idea होना चाहिए, उतना हम समझेंगे और आप जितने सवाल पूछेंगे उस पर हम बात करेंगे, ठीक है। किसी भी फिलॉसफी को समझने के तीन मतलब होते हैं, एक होता है उसकी उसके epistemology समझना। epistemology का सिंपल सा मतलब यह है कि ज्ञान कैसे होता है। What is theory of knowledge ये इसलिए समझना जरूरी है। इसके बिना आप किसी फिलॉसफी का क, ख, ग भी नहीं समझ
सकते। सब इसी पर टिका होता है। और चार्वाकों का तो सब कुछ इसी पर टिका हुआ है, जो छोटी सी बात है। फिर समझना होता है कि उसके metaphysics यानी तत्वमीमांसा क्या है और metaphysics का मोटा सा मतलब ज्यादा मुश्किल किए बिना ईश्वर के बारे में जगत के बारे में और आत्मा के बारे में वो क्या कहता है? ईश्वर होता है कि नहीं होता है, होता तो कैसा होता है, जगत की व्याख्या कैसी होगी, आत्मा है या नहीं, है तो कैसे बनी, किसने बनाया, वो सारे सवाल इन तीनों को बोलते हैं metaphysics या ontology बोल
देते हैं। और लास्ट में होता है Ethics. Ethics से मतलब है कि जीवन का उद्देश्य क्या है। मतलब नीति मीमांसा, नैतिक विचार। कि संसार का उद्देश्य क्या है और उसमें हमारी भूमिका क्या है। हमें कैसा जीवन जीना चाहिए, किन चीजों के पीछे भागना चाहिए, किनके पीछे नहीं भागना चाहिए, इसको बोलते हैं Ethics. तो किसी भी फिलॉसफी को हम पढ़ेंगे, आज से जैसे हम शुरू कर रहे हैं। भारतीय दर्शन में करीब 8, 10 को हम पढ़ेंगे। मतलब जैन को पढ़ेंगे, बौद्ध को पढ़ेंगे, सांख्य योग को एक साथ पढ़ लेंगे, न्याय वैशेषिक को एक साथ देखेंगे। शंकराचार्य
को ठीक से पढना पड़ेगा तो जब भी पढ़ेंगे बेसिकली इन तीन फॉर्मेट्स में मोटी मोटी बातें समझेंगे,उसी से बात समझ में आएगी। अगर हम चार्वाकों के ज्ञानमीमांसा से बात शुरू करें तो एक बहुत बेसिक सी बात बोलते हैं, और वो बोलते हैं कि भई देखो ऐसा है कि केवल और केवल हम प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानेंगे। प्रत्यक्ष का मतलब होता है perception और उनका एक प्रसिद्ध सूत्र हैं सारे सूत्र ले आया हूं ताकि आपको ये भरोसा रहे कि सर्वदर्शन में ऐसा ही लिखा था उन्होंने. ये सारे सूत्र कहां से लिए, सर्वदर्शन संग्रह से लिए है।
माधवाचार्य विदयारानी की पुस्तक है वहां ये सारे सूत्र मिलते हैं। प्रत्यक्षमेव प्रत्यक्षण एव एकम् प्रमाणं प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है, बाकी कोई प्रमाण नहीं। इसका मतलब क्या हुआ। जो दिखता है उसी को मानेंगे बाकी कुछ नहीं मानेंगे। पश्चिम के लोग जब इस बात को बोलते हैं तो इसी को बोलते हैं empiricism यानी के अनुभववाद। भाई जो अनुभव से मिल रहा है उसी को मानेंगे उसके beyond नहीं मानेंगे। एक शब्द आपने शायद कहीं सुना हो टेबुला रासा। जॉन लॉक पश्चिम में एक आदमी हुआ। उसने ये शब्द दिया था। बहुत पॉपुलर शब्द है। नई जनरेशन में कई
लोग उसका इस्तेमाल करते हैं, टी शर्ट पर लिखा हुआ मिलेगा टेबुला रासा। कुछ cogito ergo sum लिखकर घूमते हैं, उनको पता नहीं इसका मतलब क्या होता है। cogito ergo sum का मतलब है I think therefor I am. ये डेकार्ट के बहुत प्रसिद्ध सूत्र है। उस सूत्र से उसने आत्मा को साबित कर दिया था और लोग ऐसे ही I think, I think करके चल रहे हैं। ऐसे ही टेबुला रासा का मतलब है कि जब हम पैदा होते हैं, हमारी जो आत्मा है या चेतना है वो blank है, कोई knowledge पहले से नहीं है। जितना अनुभव होता
है, हम सीखते चलते हैं। सारा ज्ञान सारी समझदारी अनुभव से आती है। इस कंसेप्ट का नाम है टेबुला रासा। खैर। Empiricism पश्चिम में कई लोग उसको मानते हैं, बहुत लोग फॉलो करते हैं। लोक है, बर्कले है, ह्यूम है, ये सब लोग इसके बहुत बड़े समर्थक रहे। भारत में अकेला चार्वाक है जो ये बात कहता है। पूरे भारतीय दर्शन को अगर आप समझना चाहें न तो हमारे यहां कुल छह प्रमाण माने गए हैं। प्रमाण का मतलब है evidences of knowledge किसी बात का evidence क्या है, कैसे साबित हुआ कि बात सही है कि गलत है। इसको
बोलते हैं evidence. एक प्रमाण तो प्रत्यक्ष है ही जो आपने देखा इसको अंग्रेजी में perception कह देते हैं। एक होता है अनुमान अनुमान का मतलब क्या होता है inference. जैसे आप सुबह उठे आपने देखा सड़क पानी भरा हुआ है, बिल्डिंग गीली दिख रही है। आपने बरसात होते हुए देखी तो नहीं पर आपको भरोसा है कि बरसात हुई होगी। इसलिए ऐसा है, ये inference है। कुछ देखकर किसी और चीज के होने का अनुमान कर लेना इसको अनुमान कहते हैं। तीसरा होता शब्द प्रमाण Testimony या authority बोलते हैं। जैसे अभी जितने बातें आपको बता रहा हूं। आप
में से कोई घर जा के एक एक बात को चेक करेगा। मेरे ख्याल से ऐसा कोई नहीं करने वाला क्योंकि आपके मन में एक भरोसा है कि ये बोल रहा है इसने बहुत साल ये काम किया है, धंधा किया है, काम धंधा यही किया है इसने, ठीक ही बोल रहा होगा। ये जो भरोसा है, आपको भरोसा है कि ये व्यक्ति इस चीज के मामले में प्रामाणिक है। इसको जानकारी है जैसे डॉक्टर के पास जाते हैं, डॉक्टर ने कहा कि एक्सरे करवा लो, आप बिल्कुल सवाल नहीं करते क्यों एक्सरे करवा लो भाई। आप कहते हैं अच्छा
ठीक है, आप जानते हैं, मैं नहीं जानता हूं। आपने एक्सरे करवाया, आप देख देख के देख रहे हैं, आपको खाली फोटो दिख रही है, कुछ समझ में नहीं आ रहा। डॉक्टर ने जैसे ही देखा, तीन चार लंबे लंबे नाम लिखे इंग्लिश में और कहा कि ये आपको हो गया है, ये वाली दवाई खा लीजिए। आप कभी रिसर्च नहीं करते हैं। अब गूगल में लोग करने लगे हैं पर उससे हासिल क्या होता है। गूगल पर रिसर्च करने से केवल संशय होता है। Doubt होता है निष्कर्ष तो मिलते नहीं हैं। दवाईयों के मामले में और 50 और
बीमारियां पता लगती हैं जो मुझे हो सकती हैं। तो ये दबाव और हो जाता है कि मुझे तो ये भी है, ये भी वो भी है। फिर आप अंत में जाते वही है कि भाई साहब आप ही बताइए। डॉक्टर बोलता है,चुपचाप ये खा लो, अब तक ठीक हो भी गए होते। ये शब्द प्रमाण है कि प्रामाणिक व्यक्ति कह रहा है तो ठीक कह रहा होगा। आपतो उपदेश: शब्द: इसको बोलते हैं। एक कुछ लोगों ने कहा उपमान Comparison इसका मतलब ये है कि कुछ देखा हुआ था, उससे compare करके कुछ information अपने हासिल कर ली। जैसे
कोई आपसे कहे आपने मान लीजिए हाथी कभी नहीं देखा और आप एक जगह जा रहे हैं जहां हाथी हो सकता है। आपने किसी ने पूछा भई हाथी कैसे पहचानूगां। अकेला जा रहा हूं, वहां तो कोई है नहीं पहचानूंगा कैसे। उसको कहा भैंसा देखा है, आपने कहां हां भैंसा देखा है। हां फिर भैंसा है ना, ा उसको हाइट डबल करो। उसने कहा, ठीक है, कर दिया। पैर जो है खंबे जैसे पैर कर दो चार, उसने दिमाग में कर दिया। फिर आपने कहा, उसके आगे नाक जो होती है ना, उस नाक को बहुत लंबा कर दो। सात-आठ
फीट के बराबर कर दो घूमने वाली नाक ऐसे कर दो, उसको सूंड बोलते हैं। उसने मन ही मन में concept बना लिया। कि डबल हाइट का भैंसा, आठ गुणा मोटाई के पैर और करीब 80 गुणा लंबी नाक भैंसे से, ये हाथी होता है। रंग वैसा ही होता है लगभग। अब वो जंगल में गया, अचानक सामने हाथी आ गया उसके। तुरंत अरे यही तो है, यही तो है, इसको बोलते हैं उपमान। Comparison करके आपने जब जान लिया इसको उपमान कहते हैं। एक प्रमाण भारत में कुछ लोगों ने कहा अर्थापत्ति, implication अंग्रेजी में बोलते हैं और इसका
मतलब होता है, जब दो contradiction हों, contradictions को establish करने के लिए कुछ जानने के लिए जो तरीके इस्तेमाल होता है, जैसे आपके पास आसपास एक व्यक्ति है जो बिल्कुल नहीं पढ़ता है। दिनभर घूमता रहता है और exam में टॉप करता है हर बार। आप परेशान है यार, एक fact है दिनभर घूमता रहता है, एक fact है हर बार टॉप करता है। चीटिंग भी नहीं करता है। अब इनको ठीक करने के लिए आप दिमाग लगाएंगे। इसका मतलब रात को जाग कर पढ़ता होगा। हम सबको सलाह देता है, खुद रात को पढ़ता है, इसको बोलते हैं,
Implication, क्या imply हो रहा है इससे। और अंतिम जो प्रमाण है उसको बोलते हैं अनुपलब्धि। अनुपलब्धि को बोलते हैं non existence इसका मतलब ये होता है किसी चीज के नहीं होने को जानना। जैसे इस कमरे में कौन कौन है वो तो perception से मैं जान सकता हूं, पर जो नहीं है वो कैसे जानूंगा। तो नहीं होने को जानने के लिए कुछ लोग मानते हैं कि अगला प्रमाण है। और कुल मिलाकर कितने प्रमाण हैं भारत में, छह प्रमाण है। कुछ लोग मानते हैं केवल एक प्रमाण, कुछ मानते हैं दो, कुछ मानते हैं तीन, कुछ मानते हैं
चार, कुछ मानते हैं पांच, कुछ मानते हैं छह। चार्वाक अकेला है जो केवल एक मानता है कि हम तो कुछ और मानेंगे ही नहीं, केवल प्रत्यक्ष मानेंगे जो दिखता है उसको मानेंगे। प्रत्यक्ष मतलब पांच इन्द्रियां हैं, आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा। इनसे जो ज्ञान होता है उसको मानेंगे। और एक मन, अंदर की इंद्री है उसको भी मान लेंगे। सुख दुख फीलिंग इसको भी हम क्योंकि महसूस करते हैं मानेंगे। इसके beyond कुछ नहीं मानेंगे। बाकी लोगों ने कहा न भाई ऐसे काम नहीं चलेगा। बौद्धों ने, वैषेशिकों ने दो प्रमाण मान लिए। अब सांख्य योग है, वैष्णव
वेदांत है। इन सबने मान लिए तीन प्रमाण। न्याय ने चार माने प्रभाकर मीमांसा ने पांच माने, भट्ट मीमांसा अद्वैतवाद ने छह प्रमाण माने और खूब discussions होती हैं, बहस होती है, पर ये भाई साहब कह रहे हैं एक ही मानेंगे। अब इसका मतलब पता है क्या हुआ जिस चीज का प्रत्यक्ष नहीं होता उसकी सत्ता नहीं मानेंगे। अब आप खुद सोचिए जब ये प्रतिज्ञा करके चले हैं क्या ईश्वर को मान सकते हैं, नहीं मान सकते,आत्मा नहीं मान सकते। सीधी सी बात है। स्वर्ग को नहीं मानेंगे। नरक को नहीं मानेंगे, मोक्ष को नहीं मानेंगे। अमेरिका,प्रत्यक्ष उसका भी
नहीं होता। अगर कोई हमसे उस समय पूछ लेता,पर पूछता कौन उसको भी तो नहीं पता था। लेकिन अगर कोई पूछ ले कि भैया मंगल ग्रह के पीछे की तरफ एक पत्थर रखा है, बताओ रखा है कि नहीं रखा है। दिख तो नहीं रहा। कोई इनसे पूछा बैक्टीरिया है कि नहीं, दिखता तो नहीं है। लैंस थे नहीं उस समय, माइक्रोस्कोप था नहीं,वायरस न्यूक्लियस, प्रोटोन, न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रॉन क्या मानते, बोलते हैं नहीं दिखता, नहीं होता। दरअसल perception को अंतिम मानना एक तरह की मूर्खता ही है जो चार्वाकों ने की है पर उस समय शायद इससे beyond वो नहीं
सोच पा रहे थे। और क्यों कि ऐसी प्रतिज्ञा ले के चले हैं इसलिए इनकी मेटा फिजिक्स असली आपको जिज्ञासा मेटा फिजिक्स और ethics में होती है। भगवान, आत्मा,जगत उस समय ज्यादा रहता है ना, अब उसी की बात करेंगे, लेकिन ये समझते हुए बढ़ना बहुत जरूरी है कि केवल प्रत्यक्ष को मानकर चल रहे हैं। प्रत्यक्ष में बहुत समस्याएं हैं, ये नहीं समझ पा रहे। अगर प्रत्यक्ष हमेशा ठीक होता, सोचकर देखिए मान लीजिए किसी को जॉन्डिस हो जाए। अब जॉन्डिस होने की बाद सब कुछ पीला-पीला दिखता है। कोई आपके सामने सफेद कमीज पहन के आए, आपने कहा
कि बहुत बढ़िया पीली कमीज है। कह रहा है यार सफेद पहन कर आया था मैं तो। ये बेचारा अपनी तरफ से ठीक बोल रहा है।पर इसको तो है ही जॉन्डिस, ये करे क्या। Perception करने वाले की भी तो प्रॉब्लम हो सकती है। किसी की आंखें ठीक नहीं हैं, जैसे मेरी ठीक नहीं हैं। हम में से कई लोगों की ठीक नहीं है, चश्मा लगाते हैं। तब चश्मा भी नहीं होता था। अब ठीक से न दिखने की problems में से एक एक problem ये भी होती है कुछ लोगों को क्योंकि उनको एक के दो दिखते हैं। डबल
इमेज बनती है। अब एक ऐसा आदमी है जिसकी आंखें नहीं है, एक की ठीक हैं, जा रहे हैं सामने से, एक भैंसा आ रहा है। इसको दो दिख रहे हैं। कह रहा है मैं दोनों के बीच निकल जाऊंगा, अब है ये कि Perception हमेशा ठीक होगा, क्या गारंटी है इस बात की। हम ट्रेन में बैठते हैं, हमारी ट्रेन चल रही है और हमको क्या लगता है साथ वाली ट्रेन पीछे जा रही है। जबकि वो पीछे नहीं जा रही, हम आगे जा रहे होते हैं। हमें पृथ्वी चपटी दिखती है। है गोल, और सूर्य हमें लगता है
कि पूर्व से निकला। अब कहां कहां होते हैं sun rises in the east हर बच्चे को झूठ सिखाते हैं हम बचपन से ही। sun rises in the east sets in the west. जबकि सूर्य वहीं है, भईया हम लोग घूम रहे हैं। हम पश्चिम से पूर्व घूम रहे हैं, सूर्य वहीं का वहीं है। पर सिखा हम क्या रहे हैं कि सूर्य पूर्व से उगता है, पश्चिम में सोता है। सूर्य हंस रहा है ऊपर से कैसे-कैसे लोग हैं यार। इनको ये भी नहीं पता कि मैं तो वहीं हूं तुम्ही घूम रहे हो। प्रत्यक्ष तो कितना भ्रामक हो
सकता है। एक साइज की छोटी चीजें दिखती नहीं है। एक साइज से बड़ी चींजें दिखती नहीं है। एक लेवल से नीचे के डेसिबल्स की आवाज सुनाई नहीं देती है। कुछ आवाजें कुत्ते सुन लेते हैं हम नहीं सुन पाते हैं। भूकंप के दिन इसी बार जो हुआ टर्की में, अब videos आ रहे हैं कि भूकंप से दो-तीन मिनट पहले एक डॉग है जो लगातार चिल्ला रहा है वहां पर सड़क के बीच में खड़ा होकर। लगातार चिल्ला रहे है क्योंकि उसके पास उन vibrations को जानने की ताकत है, हमारे पास नहीं है। तो perception भी तो लिमिटेड
हो सकता है ना। लेकिन इस बात को वो नहीं समझ पा रहे। पर इन्होंने ठान लिया कि हम तो perception को लास्ट मानेंगे और जब ये हुआ तो मेटा फिजिक्स में आकर बोल रहे हैं। मेटा फिजिक्स का पहला सवाल है कि अंतिम सत्ता भौतिक है या चेतन है, मैटेरियल है या conscious है, मैंने ये तीसरे वीडियो में विस्तार से समझाया था। Consciousness दिखती नहीं है तो ये कह रहे हैं कि अंतिम सत्ता matter है और इसलिए इनका मूल विचार है Materialism Materialism को हिंदी में भौतिकवाद या जड़वाद कहते हैं और इसका मतलब बड़ा सिंपल सा
है कि अंतिम रूप से जो चीज है वो भौतिक चीजें हैं। पर भौतिकवादियों के सामने एक ही प्रॉब्लम होती है। यह explain करना कि भौतिक चीजों से आत्मा कैसे बन गई। फिलॉसफी और साइंस में एक बेसिक रूल बनाया जाता है। कारणी कार्य नियम, causation. एक ऐसा cause जो substantial है वहीं इफेक्ट को पैदा कर सकता है। यानी कपास से धागा बन सकता है। रुई से धागा बन सकता है। आप रुई से रेत नहीं बना सकते। आप रुई से पानी नहीं बना सकते। पानी से बर्फ बना सकते हैं। तेल से बर्फ नहीं बना सकते। सवाल यह
है कि आप लोहे लकड़ी से चेतना कैसे बनाएंगे, feeling कैसे बना लेंगे विचार कैसे बना लेंगे लोहे लकड़ी से और सारे भौतिक वादियों के सामने crisis इसी बात का रहता है। आधुनिक काल भौतिकवादी कौन है, कार्ल मार्क्स बहुत बड़ा भौतिकवादी है पश्चिमी में, एमएन राय, भारत में बहुत बड़े भौतिकवादी हुए हैं, लेकिन पूरे नौ दर्शनों में ये भाई साहब अकेले हैं जो भौतिकवादी हैं, बाकी कोई भौतिकवादी नहीं है। पश्चिम में भरमार है भौतिक वादियों की यहां पर नहीं है। अब ये साहब क्या कह रहे हैं कि देखो भाई जो तत्व है, अंतिम सत्ताएं हैं, चार
हैं। पृथ्वव्यप्तेजोवायुरिति, संस्कृत में से तोड़ेंगे तो पृथ्वी ये अप जो है इसको बोलते हैं, पानी, आब यानी जल। तेज का मतलब अग्नि, वायु का मतलब वायु, रिति एक वायु रिति है। यानी इतनी ही है, तत्वानि। चार तत्व हैं। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि। अब आपके मन में आता होगा, पांच सुने थे हमने तो। आपने कहीं शब्द सुने, पांच महाभूत। भारत के लोगों की सामान्य धारणा है कि पांच महाभूत होते हैं। तुलसीदास जी ने इस बात को और अच्छे तरीके से explain कर दिया। क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा क्षिति क्या है, मिट्टी है पृथ्वी है। जल क्या
है पानी है खेती जल वायु, वायु तो है ही, गगन यानी आकाश, समीरा मतलब हवा, क्षिति, जल, पावक है, पावक मतलब अग्नि होगी। अब ये कह रहे हैं कि चार महाभूत हैं, क्यों आपको पृथ्वी दिखती है आपको जल दिखता है फील होता है दिखता भी है, टच करेंगे फील हो जाएगा। अग्नि ठीक से फील होती है,दिखती भी है। नहीं तो लगाकर देख लीजिए, एकदम खटाक से फील हो जाती है। वायु भी फील होती है, क्योंकि आंधी-वांधी में निकलिए, देखिए और लगता है कि उड़ न जाएं, ठीक से फील होती है। लेकिन एक है आकाश आकाश
फील नहीं होता। आप कितना भी ताकत लगा लीजिए। अब देखिए ऊपर। अच्छा आकाश और स्पेस को अभी के लिए एक मान लीजिए। हालांकि दर्शन में इनको भी अलग माना जाता है, ठीक है, अभी के लिए मान लीजिए। आकाश मतलब स्पेस, समझने के लिए। स्पेस कहां है, केवल वहां नहीं है, स्पेस हमारे बीच में भी स्पेस ही है। तो आपके मेरे बीच में जितना भी गैप है वो स्पेस है। आप में से किसी में दम हो तो स्पेस को देखकर दिखा दीजिए। अब स्पेस को नहीं देख सकते हैं। आप स्पेस में चीजों को देख सकते हैं।
आप स्पेस को नहीं देख सकते हैं। स्पेस में कुछ होगा तो नजर आ जाएगा। प्योर स्पेस perceptible नहीं है। प्रत्यक्ष का विषय नहीं है। और क्योंकि भाई साहब पहले ही बोल चुके हैं कि प्रत्यक्ष को ही मानेंगे तो जो प्रत्यक्ष नहीं होता, कैसे मान लें। तो इन्होंने कहा, चार महाभूत होते हैं, पांच नहीं होते हैं, चार महाभूत होते हैं। आकाश कोई महाभूत नहीं है। आकाश को ले के पूरे इंडियन पूरी वेस्टर्न फिलॉसफी में बहुत debates हैं कि आकाश को महाभूत माने के ना माने। Interesting बात है ठीक इसी समय ग्रीस में यूनान में एक दार्शनिक
हुए हैं, एमपेडोप्लीज। वहां के लोग बोलते हैं ग्रीस में कि एमपेडोप्लीज was पाकुज कात्तयान ऑफ इंडिया। पाकुज कात्तयान मैंने नाम बोला थोड़ी देर पहले, पाकुज कात्तयान वो भी ये बोल रहे हैं कि चार महाभूत होते हैं। चार वार विचार बोल रहे हैं, अजित केश कंबली भी चार बोल रहा है। एम्पेडोक्लीज वहां चार बोल रहे हैं। यही चार, आकाश को कोई नहीं मान रहा। उसको भी नहीं दिख रहा आकाश, कैसे मानें। ये मैं जो समझाना चाह रहा हूं, वो ये कि दुनिया की हर सभ्यता में जब लोग जिज्ञासु होते हैं, Same problems झेलते हैं। Same problems
में कई बार same solutions पर भी आते हैं। पर चार्वाक rigid है कि हम तो चार ही मानेंगे, पांच नहीं मानेंगे, बात ही खत्म हो गई। अब देखिए असली सवाल इसके बाद ये आएगा कि मान लीजिए की चार हैं, ठीक है। आपको ये भी तो बताना पड़ेगा ना कि ये चार मिलते कैसे हैं क्योंकि वो कह गया ना कि इन चारों के मिलने से हर चीज़ बनती है। बहुत ही plain explanation है, बहुत ही सरल किस्म की व्याख्या है। उतनी complicity इसमें है नहीं जितनी दर्शन में चाहिए होती है। थोड़ी ज्यादा सिंपल हो गई है।
तो ये क्या कह रहे हैं कि भाई चार महाभूत हैं, उनके मिलने से अलग अलग अनुपात में उससे लकड़ी बन जाती है, उससे लोहा बन जाता है, उसी से इंसान बन जाते हैं, उसे से बकरे, भैसें, उल्लू सब बन जाते हैं। अलग अलग प्रपोशन में मिलने से बन जाते हैं। तो ये सवाल तो बताना पड़ेगा। मिलाता कौन है, कोई तो मिलाएगा इनको। अब मिलाता कौन है इस प्रश्न के उत्तर में कई लोग उछलकर बोलते हैं,भगवान जी मिलाते हैं। जैसे न्याय दर्शन बोलता है। ईश्वर मिलाता है, ईश्वर निमित्त कारण है। ये कह रहे हैं न, कोई
नहीं मिलाता है। इन महाभूतों का स्वभाव ही ऐसा है कि वो अपने आप मिल जाते हैं। इसको बोलते हैं स्वभाववाद या naturalism. ये जो चार बेसिक एलिमेंट्स हैं, इनकी नेचर ये है कि ये अपने आप मिलते रहते हैं। मिलाने के लिए किसी और की, जैन दर्शन ने भी यही कहा कि कोई मिलाने के लिए नहीं चाहिए हमें। जैन फिलॉसफी परमाणुओं को मानती है। लेकिन परमाणु मिलते कैसे हैं, अपने-आप मिलते हैं, उसके लिए ईश्वर चाहिए ही नहीं उनको। अपने आप मिल जाते हैं। यही बात पश्चिम में डेमोक्रेटर्स इसी समय कह रहा है कि ये परमाणु हैं,
अपने आप मिलते हैं। ये भी कह रहे हैं अपने आप मिलते हैं। तो ये अपने आप हो जाता है सब कुछ। और किसी ने इनसे पूछा कि अरे ये बताओ ना फिर इंसान अलग टाइप का है। बाकी animals अलग टाइप के हैं, लोग अलग अलग टाइप के। तो बोले अनुपात, थोड़ा अनुपात चेंज हो जाता है preparation में बस उससे होता है। तुम्हारा अनुपात थोड़ा खराब था, हमारा था तुमसे अच्छा देखो। हम ज्यादा अच्छा सोच पा रहे हैं। तुम्हारा proportion थोड़ा खराब है, तुम कम सोच पाते हैं। थे घमंडी एकदम वो भी खूब। Aggression में सबका
भूत बना देते थे जो उनके सामने आता था। उस तरह से बात करते थे। दर्शन में कुछ लोग मानते हैं। दुनिया ईश्वर ने बनाई है। इसको बोलते हैं क्रिएशनिज्म, कि किसी खास प्रयोजन से, purpose से दुनिया ईश्वर ने बनाई। ये है क्रिएशनिज्म या सृष्टिवाद। कुछ लोग मानते हैं ना, अपने आप बन गई by chance जो बोलते हैं अपने आप बन गई। उनको बोलते हैं mechanical theory यांत्रिक सिद्धांत, चार्वाक के लोग, मैकेनिकल थ्योरी के समर्थक हैं। मैकेनिजम के समर्थक हैं ये उनका जगत के बारे में पृथ्वी के बारे में संसार के बारे में विचार था। दिक्कत
आती है आत्मा में सबसे मुश्किल टॉपिक क्या होता है, आत्मा। इनसे पूछो ईश्वर, तो ईश्वर तो है ही नहीं क्योंकि वो दिखता ही नहीं है। न ईश्वर को देख सकते हैं न सूंघ सकते हैं, न टच कर सकते हैं, ना फील कर सकते हैं। ना उसकी smell आती है। तो सीधी सी बात है जो पांच इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता, इनके हिसाब से उसकी existence है ही नहीं। तो ईश्वर को नहीं मानते हैं। आत्मा पे आकर मामला फंस जाता है और आत्मा पर आकर आपका मामला भी फंस जाता है रातभर। आप सबको बड़ी जिज्ञासा
कि पता लग जाए फाइनली और मैं पहले ही बोल चुका हूं कि मुझे भी नहीं पता है। तो मैं तो सिर्फ ये बताऊंगा जैसे आत्मा पर मेरी इच्छा है कि एक बार हम तीन घंटे discussion आत्मा पर ही करेंगे। दुनिया के सारे फिलॉस्फर उसके ग्रुप्स ने क्या क्या कहा? सारे धर्मों ने क्या कहा विज्ञान क्या कह रहा है, और मेरी आस्था ये है कि इसका अंतिम उत्तर विज्ञान देगा ना कि धर्म या दर्शन देने वाला है। और विज्ञान काफी नजदीक पहुंच चुका है। अब काफी नजदीक के बाद भी दूरी कितनी है, कहना मुश्किल है,लेकिन हां,
वो लोग काफी आगे तक पहुँच पा रहे हैं। और न्यूरो साइंस शायद इसका सबसे सटीक जवाब देने वाली है भविष्य में। न्यूरो साइंस के experiments बहुत कमाल के हैं, जो ब्रेन को और जो पूरा हमारा neural सिस्टम है उसको स्टडी करते हैं। क्योंकि आत्मा का विचार क्यों आया होगा, अगर आप यहां से शुरू करेंगे तो आपको सारे प्रश्नों के उत्तर मिलते चले जाएंगे। आज उतना विस्तार में नहीं जाते, आज सिर्फ इस context को समझते हैं। आप सबको ये भरोसा है कि आपके पास आत्मा है, क्योंकि भारत में generally सबको ये भरोसा है कि हमारे पास
आत्मा है। ठीक है, रखिए भरोसा उस पर, तनाव नहीं लेना है, रखिए भरोसा, पर ये समझते हैं कि इन्होंने इस बारे में क्या कहा, और बाकी लोग क्या कहते हैं। भारत के 9 में से सात दर्शनों को ये भरोसा है कि आत्मा होती है। 7 not out of nine, Confidence बढ़ता है इस बात से कि चलो काफी लोग हमारे साथ खड़े हुए हैं। है ना। दो कहते हैं कि ना, आत्मा नहीं होती है। एक तो चार्वाक कहते हैं, आत्मा नहीं होती है। एक बुद्धिज्म कहते हैं कि आत्मा नहीं होती है। बुद्धिज्म क्या बोलते हैं कि
कुछ नहीं है चेतना का प्रवाह होता है। सिर्फ, it's like a flow. जैसे बिजली के तार में करंट नाम की वस्तु नहीं है। करंट electrons का flow है उस flow को आप वस्तु मान लेंगे तो आपकी mistake है। ऐसे ही एक चेतना का flow है। उस flow को आप नाम दे देंगे आत्मा का तो आपकी mistake है। कोई आत्मा नाम की वस्तु नहीं है। कोई object नहीं है। कोई substance या द्रव्य नहीं है। एक flow ही है उसी flow को लोग आत्मा कह देते हैं ये तो और कह रहे हैं कि वो भी नहीं है,
बेकार की बात है। पर बाकी सात लोग जो हैं वो सातों मानते हैं कि आत्मा होती है। इससे हमें बहुत सुकून मिलता है। इससे हमारी आत्मा को बहुत सुकून मिलता है कि भाई आत्मा है, बड़ा भरोसा रहता है और पर दुख की बात ये है कि इन सातों की आत्मा की धारणा एक जैसी नहीं है। इनमें से कुछ मानते हैं कि आत्मा मूल रूप में चेतन है। कुछ मानते हैं आत्मा में चेतना बाद में आती है चली जाती है। वो सब कहानी ही अलग है। आगे चलकर समझेंगे। तो ये भी मत सोचिए ये सारे एक
बात मानते हैं। इनमें भी differences हैं पर एक सहमति इन सब में है कि आत्मा होती है। चार्वाक क्या कह रहे हैं,चार्वाक अलग ही लेवल पर चल रहे हैं। इन्हें किसी से फर्क ही नहीं पड़ता। कोई कितना भी ज्ञान की बात करे, ये हंसते रहते हैं जोर जोर से। आप सोचिए कोई आके आपको दो घंटे ज्ञान की बात करे और आप मुस्कुराते रहें और आपने ज्ञान की खूब बात की, फिर आपने पूछा आप लोगों को समझ आया, और कोई आपसे उठकर बोले, बड़ा मजा आया। आप अच्छी standup comedy कर लेते हैं, आपने खूब हंसाया,जबकि आप
सीरियस बात कर रहे थे। तो चार्वाकों का यही हाल था। कोई इनके सामने ज्ञान दे, मुस्कुराते थे। बाद में हंसते थे,क्या तुम ये मजाक करते हो यार, जोकर टाइप के। ये लोग, इनका तेवर ऐसा था। हमेशा आक्रामक और इसलिए इनके खिलाफ भी आक्रामकता ठीकठाक होती थी। ये कह रहे हैं आत्मा-वात्मा कुछ नहीं होती है भाई आत्मा क्या होती है चैतन्य विशिष्टो देह एव आत्मा चेतना से युक्त शरीर ही आत्मा होती है। चैतन्य विशिष्टो देह, मैं सारे संस्कृत सूत्र लाया हूं जानबूझ के कि आप ये न सोचें कि मैं गप्प मार रहा है। है ना, ये
उनके सारे सूत्र है। सर्वदर्शन संग्रह में सारे संकलित हैं वहीं से लेकर आया हूं। मैंने यूपीएससी के लिए पढ़ाते हुए कभी ये सूत्र नहीं दिखाए बच्चों को, इतना विस्तार में, पर मुझे लग रहा है यूट्यूब पर हमले ज्यादा होते हैं हर बात में, तो यहां कम से कम प्रमाण रहे तो प्रमाण के बाद हमला हो तो ठीक है,लेकिन बिना प्रमाण के हमला हो तो थोड़ा खराब लगता है ना। प्रमाण के साथ बात होनी चाहिए और मेरा तो purpose ही ये है कि सोचने समझने के तथ्यों के साथ बात करने की संस्कृति विकसित हो। हवा में
बात करने की जो आदत है वो कम हो। खराब आदत अच्छी बात नहीं है। चैतन्य विशिष्ट देह एव आत्मा, चैतन्य से युक्त शरीर ही आत्मा है। कितनी interesting बात कह रहा है कि शरीर ही आत्मा है पर शरीर कौन सी जिसमें चैतन्य है चेतना है, मर गए तो चेतना खत्म हो गई। जिंदा है तो चेतना है। अब ये गलती क्या कर रहे हैं, चेतना को प्राण का समार्थक मान रहे हैं, जबकि चेतना केवल प्राण नहीं होता है। गलतफहमी इनको हो रही है। इस पर बाद में बात करेंगे विस्तार में। मैं हल्का हल्का संकेत करके आगे
बढ़ता हूं। जब तक जिंदा है चेतना रहती है मर गए चेतना नहीं रहती है। इसका मतलब चेतना क्या है, जिंदा शरीर की विशेषता है बस। तो लोगों ने कहा यार बात तो बड़ी बढ़िया कर रहे हो, लेकिन ये बताओ अगर तुम इतने सयाने हो तो ये बताओ कि शरीर तो है भौतिक, भौतिक का मतलब क्या होता है जिसको आप देख सकें, छू सकें, जिसमें वजन है, जो स्पेस घेरता है, उसको भौतिक बोलते हैं। जैसे हम सबका शरीर है। weight कर लीजिए अपना, पता लग जाएगा कितना किलोग्राम है, कितना weight है।आत्मा का weight निकालकर देखिए कभी,
नहीं निकलेगा। हालांकि एक मूर्ख आदमी ने 21 ग्राम निकाला है आत्मा का weight । 21 ग्राम निकाल दिया है एक आदमी ने। जब आत्मा पर पूरी क्लास discussion करेंगे,उसी मैं बताऊंगा उसके रिसर्च क्या हैं। वो कह रहे हैं कि 21 ग्राम आत्मा का weight होता है। तो बाद में लोगों ने खूब मजाक बनाया उसका क्योंकि वह साबित नहीं हुआ। केवल एक सैंपल लेकर साबित करने में लग गया था। तो ऐसे थोड़ा ना साबित होता है, आपको हजारों सैंपल्स क्रॉस चैक करने पड़ते हैं, फिर जाकर साइंस में कुछ साबित होता है। आत्मा का weight निकालने का
मतलब हुआ कि मेरे विचार का वजन इतना है। आज मैंने गांधीवाद पढ़ा मेरा वजन 100 ग्राम बढ़ गया। इसका मतलब गांधीवाद विचार का वजन 100 ग्राम है। कभी ऐसा हुआ आपके साथ आज मुझे काफी feelings आ रही हैं, मेरे weight फिर 300 ग्राम बढ़ गया हैं, तो मेरी फीलिंग 300 ग्राम की हैं, ऐसा तो नहीं बोलते ना आप लोग कभी। फीलिंग से weight बढ़ेगा भी तो इसलिए बढ़ेगा कि बॉडी में कुछ changes हो गए होंगे खुशी के मारे, पर फीलिंग का वेट नहीं होगा वो। तो सवाल यह है कि शरीर तो भौतिक है उस भौतिक
शरीर से चेतना यानी consciousness consciousness का मतलब सुख दुख को फील करना, सोचना, विचार करना,doubt करना,वो सब जो प्रोसेस है उसको बोलते हैं consciousness. Conscious processes हैं। तो मैटीरियल बॉडी से consciousness कैसे पैदा हो जाएगी, क्योंकि रुई से धागा बन सकता है, रूई से बर्फ तो बनेगी नहीं। सिंपल सी बात है कारण में क्षमता जिस कार्य को पैदा करने की है वही कार्य पैदा होगा ना भाई। आप कुछ भी कैसे पैदा कर देंगे। और जीरो से अब कुछ भी कर लें, एक पैदा नहीं हो सकता। दर्शन की भाषा में असत् से सत पैदा नहीं हो
सकता। Non existence से existence कैसे पैदा हो जाएगी तो जड़ में चेतना है ही नहीं तो जड़ से चेतना कैसे पैदा हो जाएगी। इसका उत्तर दरअसल चर्वाक के पास है नहीं, और सबको चुप कराना जरूरी है। और फिलॉसफी में सबसे खराब answer वह माने जाते हैं जब कोई उपमाओं का इस्तेमाल करें Metaphors का इस्तेमाल करे, simile का इस्तेमाल करे। पर कई बार इसके बिना काम नहीं चलता। जैसे प्लेटो ने एक बड़ी खतरनाक simile का इस्तेमाल किया था। उसको cave, simile of cave कहते हैं। गुफा के सदृश्य का सिद्धांत, जब प्लेटो को समझाएंगे तो बताऊंगा, बड़ा
interesting है। उसने गुफा के example से इतनी सारी बातें समझा दी, पर फिलॉसफी में ये अच्छा नहीं माना जाता कि आपको सिद्धांत समझाने के लिए कोई example ले करके आएं। पर कभी ये भी करना पड़ता है। चार्वाक क्या कह रहे हैं। इनके तो example भी ऐसे होते हैं ना। ताम्बूल का मतलब क्या था, पान। किण्वन का मतलब होता है शराब, मतलब किण्वन की प्रक्रिया से क्या बनती है शराब। मतलब हमेशा इनके example शराब, पान, बकरा, मुर्गा,मछली अब ये भी example पता नहीं इनके थे या बाकी लोगों ने चुन-चुनकर इनके ऊपर लगा दिए, नहीं पता हमें।
। यह कह रहे हैं किण्वादिभ्यो मदशक्तिवत् विज्ञानं। भारतीय दर्शन में विज्ञान का मतलब होता है चेतना ध्यान रखिएगा। यहां विज्ञान का मतलब साइंस नहीं है, चेतना है, consciousness है। इसलिए बौद्ध दर्शन में पूरा दर्शन है, उसका नाम है विज्ञानवाद,वहां विज्ञान वाद का मतलब consciousness के बारे में है। तो चेतना कैसे बनती है। किण्वादिभ्यो मदशक्तिवत् विज्ञानं। किण्वादिभ्यो का मतलब हुआ शराब जिन पदार्थों से मिलकर बनती है जैसे गुड़ है,गेहूं भी हो सकता है, अंगूर भी हो सकता है। क्या कभी ऐसा हुआ कि गुड़ खा रहे हो, पेरंट्स कहें नहीं बेटा नहीं, ये बाप है। तुम अभी
से अल्कोहल का सेवन करने लग गए हो। कभी नहीं बोलते हैं। पेरेंट्स खुद ही अंगूर खिलाते हैं, लो बेटा अंगूर खा लो, बेटे गुड़ खा लो, लो बेटा गेहूं खा लो, गेहूं की रोटियां खा लो। उन्हें कभी तनाव नहीं होता कि बच्चा शराबी हो गया है हमारा। नहीं होता ना। लेकिन उसी गुड़ को,उसी गेहूं को उसी सामग्री को एक खास तरीके से सड़ा दीजिए तो उससे मद की शक्ति पैदा हो जाती है, नशा पैदा हो जाता है। कैसे पैदा होता है कि भाई गेहूं में,अंगूर में, गुड़ में तो नशा नहीं था, पर एक खास process
से गुजरने के बाद उसमें नशा पैदा हो जाता है। ठीक वैसे ही भौतिक शरीर के चार महाभूतों में चेतना नहीं है, पर एक खास अनुपात में मिलते हैं तो चेतना पैदा हो जाती है। चेतना आत्मा का गुण नहीं है, शरीर का गुण है। शरीर जिन चार चीजों से मिलकर बना है, चार कौन सी, वही पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, है ना, जिन चार से मिल के बना है,ये human being का अनुपात ऐसा है कि उस अनुपात से चेतना पैदा हो जाती है। चेतना के लिए चेतन वस्तु नहीं चाहिए। बहुत interesting बात है कि आज का विज्ञान
कई मामलों में इस बात को सही साबित कर रहा है। और मैंने पहले वीडियो में जिक्र किया था, कंप्यूटर में कोई आत्मा नहीं होती है और कंप्यूटर हमसे तेज गति से सोचता है। हमसे बेहतर सोचता है। सोचने का मतलब mathematical Logical reasoning की बात कर रहा हूं। CHAT GPT आने के बाद लिखने भी हमसे बेहतर लग गया है। उसकी memory हमसे बेहतर है। memory का retrieval हमसे बेहतर है। हम तो भूल जाते हैं, यार याद नहीं आ रहा, याद नहीं आ रहा। उसको ऐसा नहीं होता, Enter करते ही याद आ जाता है उसको। हमारा ये
भी होता कि नाम किसी और का याद आया, चेहरा और कोई याद आ जाता है। कि तुम सुशील हो ना। वो कह रहा है नहीं मैं तो संगीत हूं, नहीं तुम सुशील हो, नहीं मैं संगीत हूं, बाद में, अरे हां यार, sorry, मैं किसी और को याद कर रहा था। । कंप्यूटर की चेतना में सुशील, सुशील ही रहता है। संगीत, संगीत ही रहता है। retrieval of memory is perfect in case of computers as compare to us. और आत्मा लोगों ने क्यों मानी थी कि memory किसके पास रहती है, चिंतन कौन करता है, महसूस कौन करता
है, ये सब करने के लिए एक चीज़ होनी चाहिए। Substance होना चाहिए वो द्रव्य वो substance क्या है, वही आत्मा है। कंप्यूटर बता रहा है कि यार तुम ROM, RAM और ये सब लगाके, cache memory लगा के सारा काम कर लेते हो। ये सब भौतिक वस्तुएं हैं। अगर ये सारी भौतिक वस्तुएं, गणित चिंतन, मेमरी के काम सॉल्व कर देती हैं। फिर आप कहते कि जब तक मैं जिंदा हूं, मेरे अंदर कुछ तो है खास, उसको करंट से रिप्लेस कर लीजिए। जब तक कंपयूटर ऑन है कुछ न कुछ activity हो रही है। स्विच ऑफ किया बंद
हो गया। हो सकता है कि ऐसे ही कोई करंट हो पर क्योंकि इन सब बातों को हम उस समय बिल्कुल नहीं जानते थे तो एक कॉमन सेंस से लोगों ने कल्पना की कुछ ऐसा होता होगा। आत्मा की धारणा बन गई। अभी भी हो सकता है वो सही बात हो। अभी तो संभावनाएं हैं तो हम बात कर रहे हैं पर ये पता नहीं कैसे उस समय ऐसी बात कर रहे थे कि सब कुछ नहीं होता, ये सारा खेल भौतिक चीजों के मिलने से हो रहा है बस। और लोगों ने कहा भाई भाई कुछ और example ले
करके समझाओ। बोले, और एक example ले लो, example की कमी है कोई। जड़भूत विकाररेषु, भौतिक वस्तु है विकार, विकार मतलब परिवर्तन परिवर्तन होने से चैतन्यं नियम यत्तु दृश्यते। भौतिक वस्तुओं के अनुपात के बदलने से चेतना दिखनी शुरू हो जाती है। इतना ही खेल है। जैसे ताम्बूल पान पान की किसी भी सामग्री में जो वर्ण है आपको लाल नजर नहीं आता है। पान का पत्ता हरा है, ना सुपारी लाल है ना कत्था लाल है, लेकिन जब इन सबको मिलाते हैं राग यानी लाल रंग समुद्भव: , लालिमा पैदा हो जाती है। जिस पान के अंदर एक भी
चीज लाल नहीं है, जब उस पान को चबाते हैं, चर्व धातू याद कीजिए चबाना। जब उस पान को चबाते हैं तो होंठ लाल हो जाते हैं जैसे लालिमा पैदा होती है, वैसे ही चेतना पैदा होती है और इसलिए हम तो आत्मा-वात्मा को नहीं मानेंगे। और जब आत्मा को मानेंगे नहीं तो फिर स्वर्ग मिलेगा किसे, फिर नरक मिलेगा किसे, फिर मोक्ष मिलेगा किसे, बात ही खत्म हो गई। क्या आप ये समझ पाए कि इनके हिसाब से संसार की व्याख्या कैसे होगी। ईश्वर को ये मानते नहीं हैं, और आत्मा की जगह क्या मान रहे हैं, जीवित शरीर
ही आत्मा है उससे भिन्न कोई आत्मा नहीं। अब इस context में अंतिम बात है कि नैतिक जीवन को लेकर ये क्या बोलते थे, और इसी पर इन पर हमले सबसे ज्यादा हुए, क्योंकि इन्होंने ऐसी बातें कहीं या इनके बारे में लगता है कि इन्होंने ऐसी बातें कहीं, जिन पर आरोप बहुत ज्यादा हैं। तो ये तो उतने ही बिंदास तरीके से बात करते हैं। इनको तो कोई चिन्ता-विन्ता है नहीं। उस समय हमारी वैदिक परंपरा में मानते थे कि एक concept होता है, पुरुषार्थ आपने सुना होगा न कितने पुरुषार्थ होते हैं,चार सुने होंगे धर्म होता है, अर्थ
होता है, काम होता है और मोक्ष होता है। धर्म का मतलब धार्मिक आचरण करना और समझ लो पैसा कमाना। काम का मतलब यौन जीवन के और बाकी सुख जो सुख भोगने वाला पक्ष है और मोक्ष मतलब अंतिम रूप से। मोक्ष का मतलब स्वर्ग नहीं होता। स्वर्ग तो बहुत छोटी चीज है। मोक्ष का मतलब है पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाना। बार बार पैदा होने से मुक्त हो जाना स्थाई हो जाना, उसको बोलते हैं मोक्ष। तो भारत में सहमति थी कि सबसे ऊंचा जो हमारा पुरुषार्थ है वो मोक्ष है। और ये जो तीन हैं यह
उसकी तुलना में सामान्य है। इनको सीमित रूप से करना चाहिए। अर्थ पैसा कमाना ठीक है, लेकिन बहुत महत्व मत दो, काम ठीक है, लेकिन इतना पागल मत हो जाओ वासनाओं के पीछे की उसके सिवा कुछ दिखे नहीं। धर्म जरूरी है धर्म के माध्यम से मोक्ष मिलेगा। ये एक सामान्य concept वैदिक परंपरा में, औपनिषिदिक परंपरा में चल रहा है आज। तो फिर ये आए इन्होंने कहा भाई लाओ भाई कौन कौन से पुरुषार्थ हैं, हमें दिखाओ जरा। तो कुछ लोगों ने कहा जी एक तो ना ये चारों धर्म अर्थ काम मोक्ष, आपकी क्या राय है। बोले चार
में से तीन काट दो एक ही काफी है। काम एवैक: पुरुषार्थ:। काम ही एकमात्र पुरुषार्थ है सुख, वासना, भोग बाकी सब बेकार बातें हैं। कुछ नहीं करना मौज करनी है। क्या करना है पीत्वा पीत्वा पुन: पीत्वा, यावत्पतति भूतले। और गिर जाओ तो क्या करना है। उत्थाय च पुन: पीत्वा, क्योंकि पुनर्जन्म न विद्यते। ये करना है। चार बज गए हैं, लेकिन पार्टी अभी बाकी है, चार बोतल वोदका काम मेरा रोज़ का, ये करना है। आज भी तो चल रहा है। उसी समय की बात थोड़ी न है। एक ही पुरुषार्थ है काम और उसकी व्याख्या क्या है
यावत् जीवेत सुखम् जीवेत् सुख, जो आदमी सुख पर इतनी बात करे उसको बोलते हैं सुखवादी या सुखवाद। ग्रीक भाषा का एक शब्द है hedonism. तो चार्वाक लोग कौन हैं, hedonist हैं। Hedon का मतलब सुख होता है तो hedonism का मतलब जो केवल सुख पर जोर देता है वो सुखवादी है। और बाकी वही की भाई जब मर जाओगे तो देह तो लौट कर आएगी नहीं, ये पुनर्जन्म, पुनर्गमन कुछ नहीं होता है, पुनरागमन नहीं होता है। कोई वापस नहीं आता है। एक जिंदगी है कल हो न हो, एक ही बार है। उसी जिंदगी में जीना है। उसी
को enjoy करना है, ये इनका विचार है। तो उनसे लोगों ने पूछा कि भाई बाकी तो कुछ बताओ मोक्ष पर सब लोग इतना जोर देते हैं, बोले मोक्ष कुछ नहीं होता यार। मरणं एव अपवर्ग:। अपवर्ग का मतलब मोक्ष। भारतीय दर्शन में मोक्ष के लिए कई शब्द है। मुक्ति है, निर्वाण है, कैवल्य है, अपवर्ग है, निश्रेयस है, इन सबका मतलब होता है मोक्ष। अपवर्ग शब्द का प्रयोग न्याय दर्शन में ज्यादा हुआ है। कई लोग करते हैं लेकिन न्याय दर्शन मुख्य रूप से करता है। मृत्यु ही मोक्ष है बस, मरोगे काम खत्म, क्योंकि मोक्ष का मतलब क्या
है पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति, बोले होता ही नहीं है पुनर्जन्म तो मुक्ति क्या। मर गए काम खत्म हो गया, एकदम खत्म। मरने के बाद कुछ भी नहीं बचता है। न पुनर्जन्म होगा न कुछ होगा। खत्म है वो बस। तो वही मोक्ष है और ऐसे मोक्ष की इच्छा क्यों करनी चाहिए। मृत्यु हुई तो खत्म ही जाएंगे अपने आप, इसके लिए क्या इच्छा करनी है। लोगों ने कहा अच्छा मोक्ष नहीं, स्वर्ग के बारे में सोच लो फिर। बोले अरे यार सुखमेव स्वर्गं, दुखमेव नरकं। सुख में ही स्वर्ग है। शाम को 8 बजे से 11 बजे तक
सुख है ना, वही स्वर्ग होता है और दिन में ऑफिस जाते हो वही नरक है। जब पढ़ाई करते हो वही नरक है। नरक उसके अलावा कुछ नहीं है, और स्वर्ग शाम को है। जैसे ही पार्टी शुरू होती है, और चार बजने तक वही स्वर्ग होता है। तो इनकी स्वर्ग नरक की व्याख्या ये है कि वो सब यहीं है। इसके beyond कोई स्वर्ग, कोई नर्क नहीं होता है। तो लोगों ने कहा इसका मतलब मोक्ष नहीं है। बोले मोक्ष एकदम नहीं है, खत्म करो मोक्ष को। नहीं चाहिए मोक्ष वोक्ष हमें। बोले अच्छा, अर्थ के बारे में क्या
बोलें। बोले अर्थ ठीक है पैसा कमा लो, लेकिन पैसा कमा कर लेकर नहीं जाना है, छोड़कर नहीं जाना है। जितना पैसा कमाओ, सारा काम में खर्च करना है। Investment, capital formation नहीं करनी है, savings नहीं करनी है। ये capital formation की इकोनॉमिक्स नहीं समझते थे। कमाओ,लेकिन जितना कमाओ सारा फूंक कर जाना है। छोड़ के चले गए, तुमसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं है। समझदार वो हैं जो दूसरों को पैसा लेकर उड़ा रहे हैं। और मूर्ख हैं जो पैसा इकट्ठा कर करके छोड़ कर जा रहे हैं, दूसरों के लिए। कमाओ और न कमा पाओ तो कोई बात
नहीं। तब क्या करना है, तब ये करना है। घृतं कहने को कह दिया है। भाव समझें इनका। ऋणं कृत्वा पिवेत्। पैसा नहीं कमा पा रहे कोई बात नहीं, उधार लो। पीयो मर जाओ जब तुम मर ही जाओगे। कोई कैसे वापस ले लेगा तुमसे पैसे कह रहा है बड़ा अच्छा है, तो अर्थ का काम थोडा सा है। काम के लिए, स्वतंत्र नहीं है। काम हेतु इसका फायदा है। मोक्ष बेकार है। फिर क्या धर्म के मामले में बोले धर्म एक मानसिक रोग है। Psychological disease है। ये चार्वाक कह रहे हैं। मैं नहीं कह रहा हूं, लोक क्लिप
काट कर चलाएंगे कि मैं कह रहा हूं। यह मैं नहीं कह रहा हूं। मेरी तो नियति में लिखा हुआ कि मेरी क्लिप ऐसी कटनी हैं बहुत सारी और उसके बाद हमले होने हैं मेरे ऊपर। हमले होंगे,लेकिन अब मैं उससे prone, मतलब prone तो हूं ही अब मैं उससे, थोड़ा सा मुक्त भाव से रहने लगा हूं कि ठीक है क्यूं डरें जिंदगी में क्या होगा। कुछ न होगा तो तजुर्बा होगा। तो चार्वाक कह रहे हैं कि धर्म एक मानसिक रोग है। अच्छा इतनी कठोर बातें बोलते थे कि सुनकर कोई तिलमिला जाए। आप सोचिए गंगा के तट
पर कई लोग अपना धार्मिक कर्मकांड करने गए हुए हैं। कोई श्राद्ध करने गया है उसके पिताजी की मृत्यु 10 साल पहले हुई थी,दादाजी की मृत्यु 40 साल पहले, जो श्राद्ध करने गया हुआ है, और चार्वाक वहां घूमता हुआ निकल गया। वो तो गया है मतलब नदी के बीच के भाव से घूमने गया है। उसको कर्मकांड में कोई रुचि नहीं है। वहां कोई मिल गया कर्मकांड करता हुआ, लेकिन दो लोगों से बचकर रहना है। एक चार्वाक, एक कबीरदास। अगर किसी कर्मकाण्डी को गलती से ये मिल गए रास्ते में अच्छा कई लोग हैं जो बुरा, वैसे मैं
भी, मुझे भी हंसी आती है। पर मैं बोलता नहीं हूं, चुप रहता हूं कि अपनी अपनी राय है सबकी भाई। स्वतंत्र इच्छा है, आपकी इच्छा है आप कर लीजिए। जिसकी इच्छा नहीं है, वो न करे। पर ये तो चुप भी नहीं रहते। चार्वाक और कबीर, ये इतना कठोर बोलते हैं, कबीर ने तो हद कर दी एक प्रसंग में एक मौलवी साहब वहां से अजान दे रहे थे मस्जिद के ऊपर से, कबीर ने देखा। अच्छा कबीर के बारे में डिबेट है कि वो हिंदू थे कि मुसलमान थे। बहुत interesting debate है, कभी कबीर पर बात करेंगे
बहुत विस्तार में। कबीर गुस्से में क्या बोल रहे हैं, कांकर पाथर जौरि के मस्जिद लई बनाई, तां चढ़ी मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय। भई कंकर पत्थर जोड़ के मस्जिद बना ली, उसके ऊपर चढ़के मुल्ला बांग दे रहा है। भई तुम्हारा खुदा नीचे से नहीं सुन सकता था। कबीर इतनी कठोर बात करते थे। पंडा हो, मुल्ला हो, उनको तो जब कोई मिल जाए, एलर्जी थी उनको इन लोगों से। कठोर बातें करते थे। ऐसे ही ये कठोर बात करते थे। कोई श्राद्ध कर रहा था, उन्होंने कहा एक बात बता। तुम श्राद्ध कर रहे हो, यहां
तुम खाना लेकर आ गए। इस खाने को खाएंगे तो पुरोहित लोग खाएंगे। तुम तो खाओगे नहीं। और तुम्हें भरोसा है कि ये पहुंच गया उधर, तुम्हारे पुरखों के पास पहुंच गया। तो अगर यहां का खाना वहां पहुंच सकता है तो लोग टिफिन लेकर क्यों जाते हैं। कितना सुंदर है कोई काम करने गया है घर पर खा लो खाना पहुंच गया उसके पास। क्यों टिफिन लेकर जाते हैं लोग। फिर बोला अच्छा एक काम करो, नीचे के फ्लोर पर खाना रखा है। किसी तरह से इसको फर्स्ट फ्लोर पर पहुंचाओ जरा, मैं देखना चाहता हूं कैसे पहुंचाते हो।
तुम से एक फ्लोर दो पर जा नहीं रहा है खाना, और तुम कह रहे हो कि श्राद्ध करने से खाना वहां पहुंच गया। और वहां देह है नहीं, खाली आत्मा है, आत्मा खाना कैसे खाती होगी। आत्मा का विचार मानने वाला मूर्ख से मूर्ख आदमी ये नहीं मान सकता कि आत्मा खाना खाती होगी। ये पता है कैसी बात हुई मेरा विचार भूखा है। मेरे विचार को भूख लगी है। मेरे अंदर का गांधीवाद मर रहा है। उसे खाना खिलाओ वरना गांधीवाद कमजोर हो गया है। ये ऐसी बात हुई। चार्वाक तार्किक लोग हैं, इनसे जूझना बड़ा मुश्किल काम
है। इसलिए इनसे लोग बहुत नाराज रहते थे। इन्होंने कहा, धर्म जो है ढकोसला है, मानसिक रोग है, श्राद्ध व्राद्ध से कुछ नहीं होता है। बलिवेदी से कुछ नहीं होता, बलि तो आजकल कितने धर्मों में चलती है। यहूदियों में चलती है, मुसलमानों में चलती है, हिंदुओं के कुछ संप्रदायों में चलती है। इन्होंने बलि का इतना विरोध किया। अच्छा खाते खूब थे मुर्गा, बकरा। बोले तुम बलि के नाम पर मत खाओ, ऐसे ही खा लो भाई, ड्रामा मत करो। तुम्हें चाहिए मुफ्त का प्रसाद अरे अपना खर्चा करके खाओ जो खाना है तुम्हें। बलि के नाम पर क्यों
खाते हो। कह रहे हैं कि बलि करने से कहते हो कि पशु सीधा स्वर्ग जाता है तो खुद चले जाओ। क्योंकि तुम्हारा दावा ये है कि जिस पशु की बलि करते है सीधा स्वर्ग जाते हैं और खुद भी तड़प रहे हो स्वर्ग जाने के लिए तो आओ,लेटो, भेजते हैं। अब ये बात सुनके जो कर्मकांड को सही मानते हैं वो शांत रहेंगे? उनका खून जल जाएगा खून खोलता था लोगों का, और इसलिए कहते हैं इनके सारे ग्रंथ जला दिए। इतने मतलब गुस्से का समय था। तो ये चाहते क्या थे ये चाहते थे कि केवल सुख पे
जाओ और सुख कौन सा जो बुरी बात है, एक होता है कि सुखों में आप क्वालिटी का difference मानते हैं और एक होते हैं आप सुखों में केवल क्वांटिटी या इंटेंसिटी के डिफरेंस मानते हैं। ये ethics में बहुत बहुत महत्वपूर्ण बात मानी जाती है। इसका मतलब क्या हुआ सरल भाषा में सरल भाषा में? जैसे सुख किस किस चीज में होता है, कई चीजें हैं जो शारीरिक सुख की होती हैं जैसे कुछ चटपटा खाने का सुख बड़ा मजा आता है उस समय। बाद में बेशक पेट में दर्द हो, बेशक पेट खराब हो, लेकिन उस समय बड़ा
मजा आता है। एक सुख होता है जैसे गणित का कोई मुश्किल सवाल है वो solve कर लिया। उसका सुख या ज्ञान का सुख, चार लोग बैठे हैं किसी बात पर discussion चल रही है, आपने ज्ञान की बात बोली, सब बोले वाह, वाह यार वाह मजा आ गया। ये जो सुख है प्रशंसा का सुख है। परोपकार का सुख, किसी की हेल्प करने का जो सुख है वो भी एक सुख है। जब मां के पास खाने को कम हो तब भी वो बच्चे को prefere करेगी कि वो खाना खा ले क्योंकि उसको त्याग के सुख में जो
मजा मिलता है वो भोजन के सुख में नहीं मिलेगा। उसका ऊंचे स्तर का स्वार्थ है। क्योंकि उसको त्याग का सुख ज्यादा बड़ा सुख लगता है। अब ये चार्वाक क्या बोलते हैं कि इन सारे सुखों में कोई वैल्यू डिफरेंस नहीं है। कोई क्वालिटी के डिफरेंस नहीं है। इसलिए कोई ये कहे कि परोपकार का सुख ज्यादा ऊंची चीज है, ये सब बेकार की बातें हैं जिस चीज में मजा आए वही सुख सबसे अच्छा है। ठीक ये बात 19 century uk में बेनथम कह रहा था, जेरेमी बेनथम। उसने भी ये बात कही, और जे एस मिल ने उसको
ठीक चपत लगाई उसके बाद कि कैसी मूर्खता की बात करते हो, ये चार्वाक भी नहीं समझ रहे थे। हालांकि बाद में चार्वाकों में एक संप्रदाय हुआ जिसको सुशिक्षित चार्वाक कहा गया है उपनिषदों में। पहले वाले को धूर्त चार्वाक कहते हैं। धूर्त चार्वाक सुशिक्षित चार्वाक। सुशिक्षित चार्वाकों ने मान लिया कि क्वालिटी का डिफरेंस है और ऊंचे स्तर का सुख ज्यादा अच्छा होता है। उन्होंने मान लिया पर generally लोग नहीं मानते थे। तो इसका मतलब क्या हुआ जो सुख ज्यादा आपको खींचे अपनी ओर वही ज्यादा अच्छा है। इसका मतलब ये भी हुआ कि जब फोड़ा फंसी हो
जाए, उसके आसपास खुजली करने का सुख जो है वो सुख और परोपकार का सुख बराबर स्तर के सुख हैं। अपना आराम से पान खाओ, शराब पियो उसके बाद घूमो शिकार की तलाश में घूमो। शिकार भी दोनों तरह के, और बस यही जीवन का सार है, उसके beyond कोई जीवन नहीं है। और कुछ तो सूत्र बोल रहे हैं। देखो,मछली खाना इसीलिए मत छोड़ देना कि उसमें कांटा होता है। सुख में होता है दुखों के साथ, दुख को हटाओ और मछली खा लो। कांटा हटाओ, मछली खा लो। कल सुख मिलेगा, बड़ा सुख, इस चक्कर में आज का
सुख मत छोड़ देना हाथ की एक चिड़िया झाड़ी की दो चिड़िया से बेहतर है। एक चिड़िया आ गई, खाओ उसको। झाड़ी में दो दिख रही हैं, उसे छोड़कर भागे, वो भी उड़ गई, ये भी उड़ गई। न वरमद्य कपोत:, न श्वो म्यूर:। एक सूत्र मिलता है। वरद मतलब चुनो, आदि मतलब आज, कपोत माने कबूतर आज जो कबूतर हाथ आया है उसे निपटाओ न श्वो, श्वो मतलब कल tomorrow, कल मोर हाथ आएगा, इस चक्कर में आज का कबूतर मत छोड़ देना। कल खाएंगे मोर, आज कबूतर पकड़ में आ गया उसको निपटाओ तुरंत। कल मोर निपटा देना,
क्या हो गया। जो जो प्राणी मिले उस सबको निपटाते चलो उसमें क्या दिक्कत है। ये है इनका ethics. और इनके ethics में लेकर दिक्कत यही है कि एक तो ये समाज की बातें करते, ये केवल individual की बात करते हैं। केवल भोग की बात करते हैं। जो ऊंचे स्तर के सुख हैं जो समाज के सुख हैं, परोपकार का सुख है, उनको वैल्यू नहीं करते हैं और यही कारण है कि अब पता नहीं, exectlly ऐसा बोलते थे इनकी बहुत सारी बातें गायब हो गई हैं, हमें नहीं पता, लेकिन अगर ये ऐसा बोलते थे फिर तो निश्चित
रूप से चिंता की बात है। पश्चिम में ठीक उसी समय एक दार्शनिक हुआ aristippus नाम का, उसने ठीक यही बातें बोलीं। मतलब ग्रीक में बोलीं, संस्कृत में नहीं बोलीं, लेकिन सारी बातें ठीक यही बोलीं। और अभी 20th सेंचुरी में एक डी एस लौरेंस हैं, उनका भी कहते हैं कि लगभग यही बात वो भी कहते हैं। ये चार्वाकों का एक बेसिक आइडिया था। इनके बारे में अंत में क्या ध्यान रखना है? कुछ बातें इनकी आलोचना में criticism में हमेशा ध्यान रखनी हैं और वो ये है कि इन लोगों ने एक तरफा तरीके से बातें कीं, ये
इनकी limitation है। जैसे केवल perception को ही हम सब कुछ मानेंगे, उसके beyond कोई ज्ञान मानेंगे नहीं, इससे जीवन चल नहीं सकता। आप सुबह उठे बरसात दिख रही है। आप कह रहे हैं ना, फिर से होगी तब मानूंगा वरना मैं नहीं मानूंगा। में छतरी भी लेकर नहीं जाऊंगा। अनुमान से कैसे मान लूं। मैं अपने पैर के लिए वो जूते भी नहीं पहनकर जाऊंगा। कैसे अनुमान से मान लूं। ऐसे काम थोड़े न चलता है। फिर अपने घर में खड़े हैं, बाहर से आवाज आई अरे पीछे घर के आग लग गई है, भागो। आपने कहा, न प्रत्यक्ष
करेंगे पहले। प्रत्यक्ष करने के प्रत्यक्ष हो गए, बात ही खत्म, जल कर राख हो गए। अरे लोग कह रहे हैं मान लो भाई, कोई भरोसेमंद आदमी कह रहे कि आग लग गई है तो भागो वहां से। अब ये थोड़ी न है कि किसी ने आपको उठाया सोते हुए, अरे भूकंप आया। आपने कहा, मैंने तो नहीं महसूस किया। कह रहा है भाग भाई भाग चार झटके आ चुके हैं, आने वाला है, आप कह रहे हैं ना पहले प्रत्यक्ष करूंगा। बाकी सब भाग गए, फिर पांचवा आया, समय नहीं मिला भागने का। तो इस गधेपन से काम नहीं
चलता जीवन का जीवन चलाने के लिए हमें perception के साथ और बहुत सारे ज्ञान के स्रोत मानने पड़ते हैं। फिर जिस तरह से उन्होंने आत्मा की व्याख्या की, ईश्वर की व्याख्या की वो भी सतही व्याख्या है। ईश्वर नहीं दिखता, इसलिए ईश्वर नहीं है। वसीम बरेलवी का शेर मैं कई बार कोट करता हूं। सलीका ही नहीं शायद उन्हें महसूस करने का, जो कहते हैं खुदा है तो नजर आना जरूरी है। अरे हजार चीजें हैं जो नजर नहीं आती तो तब भी हो सकती हैं। हमारे विचार नजर आते हैं क्या नहीं विचार नजर आते, भावना नजर आती
है, नहीं आती नजर। हजार चीजें हैं जो नजर नहीं आती हैं। मैं ये नहीं कह रहा कि ईश्वर है ये भी साबित नहीं होता। पर एक Possibility के तौर पर आपको मानना पड़ता है कि ऐसा हो सकता है सीधे खारिज करना,नहीं दिखता इससे नहीं है। उनको कितनी आकाश गंगाएं दिखती थीं उस समय। कितने तारे दिखते थे,उनको अमेरिका कभी देखा। अफ्रीका कभी देखा उन लोगों ने। परमाणु कभी देखा। नहीं दिखता भाई, लिमिट है। देखने की हमारी। पर ये मान लेना कि जो नहीं दिखेगा वो खारिज कर देंगे। इसलिए ऐसा माना जाता है कि जल्दबाजी में उनके
निष्कर्ष बहुत सारे हैं। जगत के बारे में कह रहे हैं कि जो चार महाभूत हैं अपने आप मिलते हैं स्वभाव हैं, ये कैसे जान लिया। प्रत्यक्ष हुआ था आपको इसका। बाकी हर चीज प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष खेल रहे हैं, चार महाभूत अपने आप मिल जाते हैं, तुम्हारे सामने मिले कभी वो। क्या तुमने महाभूतों से चेतना को बनते हुए देखा कभी? वो तो नहीं देखा, यहां खुद अनुमान कर रहे हो, और बाकी लोग अनुमान करें तो आप कहते हो कि अनुमान गलत बात है। प्रमाण नहीं मानेंगे। और खुद अपनी फिलॉसफी पूरी बेस कर रखी है अुनुमान पर, inferences
पर। और जो इनका ethics है वो ethics ऐसा है कि अगर इसको मान लें तो समाज चल नहीं पाएगा। समाज में हर आदमी शिकारी और जंगली बनकर घूमता हुआ दिखेगा। सब शिकार की तलाश में कभी कभी शिकार हो भी जाएंगे, कभी शिकार करने जाएंगे। कोई sensitivity समाज के प्रति दूसरों के प्रति नजर नहीं आती है। केवल और केवल सुख और सुखों के प्रति पागलपन बहुत खराब पागलपन होता है। कामायनी एक बड़ा अच्छा महाकाव्य है, उसमें उसमें जयशंकर प्रसाद ने लिखा है कि केवल सुखों की खोज करने से प्रलय आ जाती है। देव सभ्यता में विनाश
हो गया था केवल सुख के पीछे भागने से। सुख केवल सुख का वह संग्रह केन्द्रीभूत हुआ इतना, छाया पथ में नव तुषार सा, सघन मिलन होता जितना। मतलब देव सभ्यता में जब प्रलय आया था उसकी वजह थी सुखों के पीछे का पागलपन। इसलिए ये एक खास किस्म का पागलपन क्रिएट करते हैं, ये इनकी लिमिटेशन है। इनका contribution क्या है और किसी को भी केवल अच्छा या केवल बुरा मान कर समझेंगे तो आप ज्ञान की परंपरा का सम्मान कर नहीं पाएंगे। contribution भी तो है अगर ये न होते ना जैसा कि डॉक्टर राधाकृष्णन ने कहा है
भारतीय दर्शन हठवादी हो जाता। मताग्रही, prejudiced हो जाता, पूर्वाग्रही dogmatic हो जाता। इन्होंने भारतीय दर्शन को dogmatism dogmatism का मतलब है कि सब लोग एक ही rictual पर चल रहे हैं, सब लोग एक ही बात मान रहे हैं। कोई चैलेंज ही नहीं कर रहा उनको जब वो चैलेंज करता है तो हम नए तरीके से सोचने को मजबूर होते हैं। इन्होंने भारतीय दर्शन को रूढ़िवाद से बचाया और ये बात डॉ. राधा कृष्णन ने कही है और तुलना में क्या कहा है? जैसे पश्चिम में डेविड ह्यूम ने किया डेविड ह्यूम बड़ा खतरानाक दार्शनिक पश्चिम में हुआ। संदेहवाद
का प्रवर्तक था। उसने कहा कि हर चीज पर doubt किया जा सकता है और उसकी वजह से कई दार्शनिक गड़बड़ियां करने से बच गए। तो चार्वाक की वजह से कई लोग सही रास्ते पर रहे यह बहुत बड़ी बात है। फिर पूरे भारतीय दर्शन में Materialism का अकेला दर्शन ये है। कम से कम हमारे पास variety तो है, एक विचार हमारे पास ये भी तो है। और आज के समय में जो आत्मा का विचार इनका है। कंप्यूटर के आने के बाद artificial intelligence के आने के बाद इसके सही होने की संभावना भी है। और ये बात
प्रोफेसर हेरेना नाम के एक बहुत प्रसिद्ध दार्शनिक ने कही है कि जो चार्वाक का आत्मा का विचार है कम से कम एक logical possibility बताता है, जिसको हम खारिज नहीं कर सकते हैं। इनके ethics जो है थोड़ी खराब तो है लेकिन एक बात ये भी तो है कि क्या जरूरी है कि हर आदमी मोक्ष के पीछे ही दौड़ता रहे क्या जरूरी है कि हमारे लक्ष्य परलोक में हो? क्या इसी जीवन को इसी संसार को सुंदर बनाना पर्याप्त लक्ष्य नहीं हो सकता है? ये पूरे भारत का अकेला दर्शन जो इहलोकवाद की बात करता है कि भईया
ये जगत, ये जीवन सुधारना है। कितने लोगों ने ऐसी बात कही हरिवंश राय बच्चन कह गए हैं। इस पार प्रिये तुम हो मधु है। उस पार न जाने क्या होगा, किसी को नहीं पता है। और दिनकर ने कुरुक्षेत्र में गुस्से में ये बात कही है। भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कह रहे हैं। ऊपर सब कुछ शून्य शून्य है। कुछ भी नहीं गगन में, धर्मराज जो कुछ भी है वह मिट्टी में जीवन में। उधर कुछ नहीं है जो कुछ है यहां है। धर्मराज युधिष्ठिर इस जगत को वास्तविक समझो। इस जगत के परे की चिंताएं करना भूलो इस
जगत को सुंदर बनाना है। चार्वाकों का एहसान है कि उन्होंने बताया कि ये जगत अपने आप में पर्याप्त है, प्रामाणिक है, इस पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। अंतिम सत्य तो किसी को नहीं पता। न इनको पता था न किसी और को पता है ना आपको पता है, ना मुझे पता है। लेकिन variety of thoughts में एक variety हमारे पास इतने ठोस तरीके से आई, यह एहसान चार्वाकों का हम कभी नहीं भूल सकते, भूलना चाहिए भी नहीं। तो यह कह के मेरी बात तो समाप्त हो गई, चार्वाक के बारे में। अब आपका कोई भी सवाल हो,तो
आप मुझसे पूछें। सर मेरा नाम कौशल कुमार कमल है। मैं योग शिक्षक हूं। अच्छा ! तो मेरा सवाल सर ये है, पूरा पढ़ने के बाद आपको समझने के बाद ये लगता है कि इनके तर्क बहुत ठोस हैं। ये ढकोसला पर बहुत प्रहार कर रहे हैं। तो ऐसा भी तो हो सकता है जब इनके शास्त्र जला दिए गए हों, इनकी positivity को जला दिया गया था। हां, और सारी negative चीजें अपनी तरफ से रख दिया गया हो, इसलिए क्योंकि उन पाखंडियों की दुकान बंद ना हो हो सकता है। दरअसल जो तीन sources मैंने आपको बताए उनके
ना उनमें सर्वदर्शन संग्रह जो है जो डिटेल सोर्स है वो तो आलोचनाओं के बेस ज्यादा है। लेकिन जो पहले दो सोर्सेज हैं वो सोर्सेज इनके बारे में positive हैं, हालांकि बहुत कम हैं। तो हम ये उम्मीद करते हैं कि अगर कुछ और बहुत महान विचार होता तो कम से कम वहां उसका जिक्र होता। तो वहां भी इसके beyond के बहुत जिक्र मिले नहीं हैं। इसलिए हमें लगता कि कुछ खास विचार शायद मिस हो गए हों या intensity कम ज्यादा हो गई हो। जैसे होता है ना कि मान लीजिए आप किसी context में कह रहे हैं
कि भाई यही जीवन पर्याप्त है। इसके beyond क्यों सोचते हो। वो इसको बढ़ा चढ़ा कर क्या बोले? अरे वो तो कहते हैं कि परलोक झूठ होता है। तीसरा व्यक्ति और मसाला लगाएगा। मसाला लगते, लगते, लगते, लगते कई पीढ़ियों के बाद चीजें इतनी बदल जाती हैं,तो ऐसा हुआ होगा। मतलब संभव है लेकिन ये भी मान के मत चलिए कि उनके पास सारे सही और अंतिम उत्तर होंगे। एक perspective रहा होगा। अच्छा perspective था। और हमें इस बात का गुमान क्यों नहीं होना चाहिए। पश्चिम में जो दर्शन शुरू हुआ पहले दार्शनिक थालेस है, भौतिकवादी है, वो कहता
है जल से दुनिया बनी है। दूसरा Anaximenes है वो कहता है कि वायु से दुनिया बनी है। तीसरा पर Parmenides है, वो कहते हैं कि अंतिम सत्ता शाश्वत है। पाइथागोरस बोलता है, संख्याओं से दुनिया बनी है। हिरट लाइट्स बोल रहा है अग्नि से दुनिया बनी है और सारे भौतिक बात कर रहे हैं। डेमोक्रेटस उसके बाद आए, कह रहे कि परमाणुओं से दुनिया बनी है, सारे परमाणु भौतिक होते हैं। उनके पास इतने भौतिकवादी हैं, हमारे पास एक तो है कम से कम। तो से कम इस बात का सुकून हमें रखना चाहिए कि हमारी परंपरा में एक
भौतिकवादी दार्शनिक वो सारी बातें रखता है जो बातें पश्चिम में कई लोगों ने रखी। भौतिकवाद में हमारे पास variety कम है, पर कम से कम एक है। Spiritualism में हमारे पास वेरायटी उनसे बहुत ज्यादा है, जो हम समय के साथ आगे पढ़ेंगे। ठीक है। जी, good afternoon Sir, मेरा नाम अनुज है। मेरा question है कि हम सब एक मीनिंग ऑफ लाइफ बनाते हैं और ज्यादातर वो हमारा socialization या सोसाइटी में जो चल रहा होता है उसके हिसाब से होता है। but अगर हम फिलॉसफी का लें जैसे हमने चार्वाक पढ़ा उसके जो मीनिंग से अपनी जिंदगी
का मीनिंग ऑफ लाइफ बनाएं या ग्रीक फिलॉसफी से जो उसका virtues पर ज्यादा ध्यान है, या अद्वैत फिलॉसफी पे। तो will it be a recipe of a great life? और सर, मेरा सेकेंड question है कि अगर किसी को intellectual life जीना है तो आपको क्या लगता है कि फिलॉसफी जो भी relgion में आज कल हम पढ़े हैं तो फिलॉसफीकल डिपार्टमेंट्स में ही होता है। या sociology of religion इनमें से कौन सा ज्यादा एक better तरीका है। मतलब एक intellectual life जीने का। इसमें आपके सर क्या विचार हैं। देखिए पहला सवाल आपको यह है कि जब
सारे दर्शन को पढ़ेंगे। Will it let give us a recipe of a better life, है ना। better life की परिभाषा क्या है उससे तय होता है। अगर आपके लिए गुड लाइफ का मतलब शाम को पार्टी करना एन्जॉय करना है तो दर्शन मत पढ़िए अभी, अभी सही समय नहीं है। अगर गुड लाइफ का मतलब एक समझदारी भरा जीवन जीना है। किसी भी चीज़ पर सही राय रखना है। किसी भी प्रश्न पर एक गहराई के साथ बात करने की योग्यता हासिल करना है तो दर्शन definetely offer us a recipe for better life. दूसरी बात, हम फिलॉसफी पढ़ें
या sociology of religion पढ़ें, दोनों का perspective अलग अलग है। sociology of religion Basically आपको धर्म का सामाजिक पक्ष समझाता है। जैसे उसमें दुर्खीम को पढ़ना सबसे महत्वपूर्ण है जोकि बहुत जरूरी है। आप मुझसे पूछे कि धर्म अच्छा या बुरा, देखिए जो भौतिकवादी हैं मार्क्सवादी हैं, बोलते हैं धर्म बुरी चीज है। अध्यात्मवादी जनरली बोलते हैं धर्म अच्छी चीज है। मुझसे पूछेंगे तो मैं कहूंगा कि धर्म की सामाजिक उपयोगिता बहुत शानदार है कुछ मामलों में। लोग समझ नहीं पाते कि उसकी उपयोगिता अध्यात्म से ज्यादा सामाजिक है। एक example लेकर देखिए। कल महाशिवरात्रि थी, कुछ लोगों के
लिए एक आध्यात्मिक मामला ज्यादा है, है ना वो शिव भक्त हैं। उनको बहुत आनंद आता है शिव की भक्ति करने में, पूजा करने में,प्रार्थना करने में,एक पक्ष वो है। दूसरा पक्ष क्या है, कल बहुत सारे मंदिरों में समारोह हुए और वहां लोग इकट्ठा हुए सैकड़ों लोग इकट्ठे हुए वहां, जो लोग इकट्ठे हुए, वो जब इकट्ठे होते हैं एक सामाजिक संबंध भी बनता है उनके बीच में, सामाजिक राय बनती है और क्योंकि हम सामाजिक प्राणी हैं अपने से मिलती जुलती राय रखने वालों के साथ मिलना बहुत सुख देता है। तुलसीदास जी कह रहे हैं संत मिलन
सम सुख जग नाही। अपनी प्रकृति के लोगों से, संत लोगों से मिलने से बड़ा कोई सुख नहीं है जीवन में। कई बूढ़े लोग हैं जो घर में अकेले परेशान हो रहे हैं, लेकिन मंदिर में उनका महत्व ज्यादा है क्योंकि उनका अनुभव ज्यादा है, बच्चों उनसे पूछते हैं। उनको ये सुख मिल रहा है कि हमें सम्मान मिला। सबने एक साथ खाना खाया, लंगर किया। सामाजिकता का सुख,साथ में बैठकर खाने का सुख, यह सब सामाजिक सुख हैं, जो धर्म के माध्यम से समाज ने आपस में लेने देने शुरू किए। इसलिए धर्म की एक बड़ी भूमिका सामाजिक है
जो कभी कभी नेगेटिव भी होती है, जब दंगे के रूप में सामने आती है, जब विद्वेष के रूप में सामने आती है, बुरी भी हो जाती है। लेकिन उस पक्ष को हटा के देखें तो विशेष रूप से वृद्ध लोगों के, विशेष रूप से घर में रहने वाली महिलाएं जो बाहर नहीं निकल पाती हैं रोज रोज, काम नहीं करती हैं बाहर का, घर में पर्याप्त काम करती हैं। उनको हम जो मान लेते हैं काम नहीं करती हैं, बहुत बड़ी गलतफहमी हम लोगों को है। वो बाहर जाने वाले व्यक्तियों से ज्यादा काम करती हैं घर के अंदर,
पर उनके पास एक्सपोज़र नहीं है। वह घर के अंदर लगातार बोरियत वाला जीवन हो जाता है। उनके लिए मंदिर जाना, आप देखेंगे महिलाओं, बहुत सारी महिलाओं में शॉपिंग को लेकर खास क्रेज मिलता है। वो क्रेज सामान खरीदने का बहुत कम है, ज्यादा बाहर निकलने का है। एक ऐसी जगह है जाने का जहां बहुत लोग दिखेंगे, बहुत तरह के उत्सव होंगे। कुछ खाने को मिलेगा, पीने को मिलेगा। दोस्त मिलेंगे, परिचित मिलेंगे। वो सामाजिकता की भूख ज्यादा है जो बाजार के नाम पर संतुष्ट होती है। धर्म और मंदिर और मस्जिद भी उस सामाजिकता की भूख को संतुष्ट
करने वाले उपक्रम हैं। इसलिए धर्म का समाजशास्त्र बहुत जरूरी है समझना, लेकिन उससे आपकी intellectual जिज्ञासाएं शांत नहीं होंगी। अगर आपकी रुचि सामाजिकता को समझने में है तो धर्म का समाजशास्त्र पढि़ए। मार्टिन को पढ़िए, दुर्खीम को पढि़ए नेगेटिव साइड पढ़नी है तो मार्क्स को पढ़िए। है ना, या फायर वाक को पढ़िए। लेकिन यदि आपकी रुचि intellectual प्रश्नों को सॉल्व करने में है तो धर्म का दार्शनिक पक्ष या दर्शन, प्योर दर्शन जैसे Buddhism, Jainism धर्म भी हैं, दर्शन भी हैं। पर चार्वाक धर्म तो नहीं है, केवल दर्शन है। है ना। सांख्य धर्म नहीं है केवल दर्शन
है ऐसे बहुत सारे दर्शन हैं जो केवल दर्शन हैं,धर्म नहीं है। उनको पढ़ के कुछ नया हासिल होता है। सीखने को मिलता है, उसकी अपनी वैल्यू है। मेरा नाम अभिषेक है सर, और मैं आपसे प्रश्न पूछना चाहता हूं, जैसे दर्शन में ज्ञान मीमांसा है, तत्वमीमांसा है और आचारमीमांसा। आचार मीमांसा माने नीति मीमांसा, उसी को आचार मीमांसा भी कहते हैं। तो सारे लोग तत्वों को जानते हैं, ज्ञान को भी जानते हैं, लेकिन वो आचरण में दिखती नहीं है। समाज में भी नहीं दिखती। बहुत सारे जो बड़े बड़े लोग हैं उनमें नहीं दिखती जिनको जानते हैं। तो
ऐसा क्यों होता कि वो जानते तो है लेकिन वो उनके व्यवहार में नहीं आ पाती और फिर वो समाज में बहुत सारी समस्याएं पैदा करती है। कई-कई वजहें हैं इसके पीछे और वो हर व्यक्ति पर थोड़ी बहुत बातें लागू होती हैं, चाहे आप हो, चाहे मैं हूं। तो मैं जो सोचता हूं कि ऐसा करना चाहिए और मैं जो करता हूं,उसके बीच में गैप क्यों दिखता है आपका सवाल ये है ना basically. ऐसा एक तो इसलिए होता कि जब हम सोचते हैं कि ये करना चाहिए और जब करना होता तो करने के समय हमारे मन में
एक तरफ होता है विवेक, कि यह करना चाहिए। एक तरफ होती है वासना, लालसा, इच्छा, इनके बीच में हमेशा झगड़ा चलता रहता है और उस झगड़े में कई बार हमारी इच्छाएं या वासनाएं हमारे विवेक पर हावी हो जाती हैं। और इसलिए जब जब आपकी इच्छाएं हावी हो जाएंगी तब आपका विवेक थोड़ा सा पीछे रह जाएगा। इसके बहुत सारे examples हैं। आपको पता है कि मुझे तीन घंटे पढ़ना है,पढ़ रहे हैं। इतने में whatsapp मैसेज आ गया किसी का आपको पता है कि वट्सएप नहीं देखना चाहिए इस समय। पर आपका मन जोर मार रहा है। थोड़ी
देर आप पढ़ते रहेंगे, उधर से मन कहता रहेगा, देख ले, देख ले, देख ले। इधर से दिमाग कहेगा पढ़ ले, पढ़ ले, पढ़ ले। अंत में मन जीत जाएगा और whatsapp खोल लेंगे। खोला उसमें लिंक है। लिंक पर क्लिक हो गया। इंस्टाग्राम खुल गया। एक रील देखी। दूसरी देखी, तीसरी देखी। आधे घंटे बाद याद आया कि में तो पढ़ रहा था, फिर आप कसम खा के फोन को उल्टा करके साइलेंट करके रख देंगे। एक घंटा पढ़ेंगे। फिर मन बेचैन होने लगेगा। ये दोनों चलता रहता है एक तो ये है, दूसरा नैतिक विचार जो होते हैं
ना, नैतिक होने के लिए श्रम करना पड़ता है। अनैतिक होने के लिए श्रम नहीं करना पड़ता। वासनाओं में डूबना सबसे आसान काम है। समोसा मैंने खा लिया क्या दिक्कत है। समोसा मिला नहीं खाया इसमें दिक्कत है। बहुत ताकत लगानी पड़ती है तो नैतिक होने के लिए जितनी ताकत लगानी पड़ती है उतनी ताकत अगर बचपन के संस्कारों में मिल गई हो तो बड़ा आसान है। न मिली हो सोच सोच के नैतिक होना बड़ा मुश्किल काम होता है और इसीलिए कहते हैं कि धार्मिक व्यक्ति के नैतिक होने की संभावना ज्यादा है क्योंकि उसका धर्म उसके संस्कारों के
स्तर पर नैतिक होना सिखाता है। विचारशील व्यक्ति का नैतिक होना ज्यादा मुश्किल हो जाता है क्योंकि वो हमेशा तौलता रहता है। यह सही है कि ये सही है, ये सही है कि ये सही है मन के हिसाब से इधर घुमा दिया, उधर घुमा दिया। धार्मिक व्यक्ति घुमा नहीं सकता। किताब में लिखा है। गुरुजी ने कहा है। बाबाजी ने कहा है बात खत्म। जैसे जैन व्यक्ति को clearly बताएगी कि नॉनवेज नहीं खाना है। आप कितना भी तर्क दे लीजिए जो मन से जैन होगा। आप उसे convince कर ही नहीं पाएंगे क्योंकि उसके संस्कार इतने मजबूत हैं
कि आपके लालच का फर्क ही नहीं पड़ेगा और इसलिए जो संस्कारों के स्तर पर उतना मजबूत नहीं है विचारों के स्तर पर वासनाओं को कंट्रोल करना बड़ा मुश्किल काम होता है और इसलिए बहुत कम लोग ऐसा कर पाते हैं और जो कर भी पाते हैं हमेशा नहीं कर पाते कहीं कहीं, विचलन उनमें भी होता है। सामान्य बात है सब में होता है। किसी को देवता मत मानिए सबके साथ ये दिक्कत रहती है थोडी़ बहुत। सर, मेरा नाम पूजा है। सर मेरा ये कहना है कि चार्वाक की शब्दावली और वज्रयानी की शब्दावली एक जैसी लगती है।
क्योंकि ये बहुत ही तीखेपन के साथ बोलते हैं पर मेरा ये कहना है कि जैसे सबकी प्रैक्टिसेस हमें फिर भी सुनने को मिलती है जैसे कि वेदों में कहते हैं कि वो यज्ञ किया करते थे। मंत्र उच्चारण किया करते थे और बौद्धों में या फिर jainism में जैसे ये होता है कि वो कहीं न कहीं मेडिटेशन को लेकर, अब तो सुनाई देता है वो भी chant पर ज्यादा वो करते हैं। क्योंकि Chant जो है वो easy होता है। Chants through meditation लेते हैं तो चार्वाक का भी क्या कुछ हमें पता चलता है कि इनकी भी
ये प्रैक्टिस थी या फिर ये कुछ ऐसी प्रैक्टिस किया करते थे या फिर ये सब केवल के हाँ भई मैंने, मेरे को ये दिखता है, मैंने इसको सुना है तो मैं बस इन्हीं बातों मतलब बातों की बातें कर रहे हैं और हम सिर्फ जो दिख रहा है, हम उसे ही मान रहे हैं क्यों क्योंकि वो क्योंकि वो हमें अच्छा लग रहा है। हमें उससे pleasure मिल रहा है। तो बस मुझे बस यही पूछना था कि क्या इनकी कुछ ऐसी प्रैक्टिस है या फिर सिर्फ एक pleasure है। देखिए। दो बातें, बैठिए, बैठिए एक तो आपने कहा
कि वज्र यानी इनकी भाषा मिलती है। ये बात सही इसलिए है कि वज्रयानी में भोग की बात बहुत ज्यादा करते हैं तो वज्रयानियों का भोग पर बहुत बल देना और इनका भोग पर बहुत बल देना एक जैसे लगता है, लेकिन अंतर ये ही कि एक तो व्रजयानी बौद्ध परंपरा से आते हैं। ठीक है, जब बौद्ध दर्शन पढ़ेंगे तो उनका जिक्र थोड़ा सा करेंगे। दूसरी बात व्रजयानी भोग इसलिए करते हैं क्योंकि उनकी राय में परम भोग करने के बाद परम वैराग्य पैदा होता है तो वो उनका एक धार्मिक रास्ता है। इनका धार्मिक रास्ता है ही नहीं
क्योंकि धर्म को मानते ही नहीं हैं। जैन और बौद्ध मेडिटेशन करते हैं। वैदिक लोग ही यज्ञ करते हैं क्योंकि उन सबके दिमाग में कुछ पारलौकिक उद्देश्य है। जैनों को कैवल्य चाहिए, बौद्धों को निर्वाण चाहिए। वैदिक लोगों को स्वर्ग चाहिए। इन्हें इस जगत के beyond कुछ चाहिए ही नहीं। और जब इस जगत के beyond कुछ चाहिए ही नहीं तो वो उसके लिए कोई पद्धति क्यों डेवलप करेंगे, तो चर्वाकों के पास कोई साधना पद्धति नहीं है क्योंकि इनकी से साधना करना ही टाइम की। वेस्टेज है। छोटा सा जीवन है उसमें सुख हासिल करना, यही जीवन का उद्देश्य
है। और क्योंकि जीवन का उद्देश्य इतना सीमित है। इसलिए पूजा, पाठ, यज्ञ, ध्यान प्राणायाम, वो सब इनकी शब्दावली का हिस्सा नहीं है। वज्रयान से इतर हम बाद में समझेंगे विस्तार से। ठीक है। सर आपने जैसे बताया था कि चार्वाकों ने पुरोहितों को कर्मकांडियों के ऊपर काफी तीखे प्रहार किए। बाकी हमने जो इतिहास में देखा है कि ऐसे कई लोग हुए बहुत कुछ खासतौर से जिन्होंने काफी कठोर बातें कही। इन सब बातों के ऊपर तो सर, वो लोग survive कर गए। वो लोग शान से कहते रहे कि हां हम बौद्ध है। हमारी ये विचारधारा है। कई
राजाओं ने महाराजाओं ने उनका विरोध किया। यहां तक कि बोधिवृक्ष को भी कटा दिया गया और फिर भी वो आज तक हजारों सालों बाद उसी प्रकार की विचारधारा लेकर के आगे चल रहे हैं, लेकिन हमें चार्वाक जैसा कोई कहीं नहीं दिखाई देता या जो आज भी ये कह सके जैसे बौद्ध लोग आज भी कह सकते हैं। खासतौर से के हमारी विचारधारा वही है जो पहले थी लेकिन चार्वाक समूल नष्ट हो गए, गायब हो गया, compeletly या वो लोग ऐसा कोई दिखाई नहीं देता। कोई मठ या धार्मिक तो खैर नहीं थे या कोई ऐसा केंद्र सेंटर
जो हो आज भी कि हां यहां चार्वाक विचारधारा पली पढ़ी सुनी कही जाती है। था ही नहीं, इसके बचने का स्कोप भी नहीं था पर अब क्या होता है, जब आप धर्म के रूप में स्थापित होंगे तो आपका मठ बनेगा मंदिर बनेंगे, केंद्र बनेंगे जो धर्म के रूप में स्थापित है ही नहीं, उसके ऐसे स्थान बनते नहीं है। बौद्ध लोग भारत में हुए एक समय बहुत ताकतवर हुए विरोध भी हुआ। इसके बहुत Interesting बात है कि बौद्ध धर्म भारत में बहुत कम संख्या में है। वो भी डॉक्टर अंबेडकर का नवयान थोड़ा सा है तो है
लेकिन अगर हम जापान देखें कोरिया देखें चीन देखें तो बौद्धों की भरमार है। जापान और कोरिया में साउथ कोरिया में तो मूल धर्म ही बौद्ध धर्म है। श्रीलंका में देखिए, हिनयानी बौद्ध धर्म है। क्योंकि जब बौद्धों पर हमला हुआ तो बौद्ध यहां से भागे और भागे तो बाहर वो बहुत फैल गए। यहां उनका उतना प्रसार उसके बाद नहीं रहा पाया। जैन धर्म का बड़ा शांतिपूर्ण अस्तित्व रहा हमेशा से रहा हमले नहीं हुए, लेकिन जैन धर्म आप देखेंगे कि उतना पॉपुलर नहीं हो पाया। आज भी उसकी कुल आबादी भारत में लगभग 40 लाख के आसपास है
1 करोड़ भी नहीं। तो हर धर्म का अपना, जैन धर्म के बारे में एक बात ये है कि वो वैराग्य की बात करता है। और वैराग्य की बात आम आदमी को बहुत अपील नहीं करती। आमदनी को अपील ये सब करता है ज्यादा। और आज चार्वाक नहीं है, ऐसा नहीं है। उनका नाम चार्वाक नहीं है। चार्वाक तो भरमार में हैं। आज तो सबसे बड़ी संख्या में चार्वाक ही हैं, बस उनके नाम के साथ चार्वाक लगा नहीं हुआ है। कोई नाम दिखता ही नहीं कहीं। हां तो ये नाम प्रचलित नहीं है वरना नाम चेंज करके आप बोल
सकते हैं। वरना धूमधाम से चार बोतल वोदका काम मेरा रोज का जब चल रहा है तो है तो वही चीज ना। आज के पीढ़ी में तो चार्वाक सबसे ज्यादा हैं। बस ये है कि नाम नहीं है उसका। नमस्कार सर मेरा नाम ध्रुव शर्मा है। सर मुझे ये पूछना था कि जो थोड़े एडवांस concepts हैं हमारे इंडियन फिलॉसफी के मेटा फिजिक्स से related जो है़ सर वो मतलब जो हमारी modern science है, क्या modern science अपने लेवल पर ही इनको आगे डिस्कवर करेगी। ये थोड़े से हमें उसको lessons हमारे फिलॉसफी से या और western फिलॉसफी से
लेने पड़ेंगे जो इसकी बात करते हैं। वो तो फिलॉसफी से साइंस को हाइपोथेसिस मिल जाता है। जैसे example के तौर पर देखें आज हम जानते हैं कि दुनिया परमाणुओं से बनी है। भारतीय दर्शन में सबसे पहले यह बात जिन लोगों ने कही मक्खिल घोषाल ने ये बात कही। महावीर ने कही, जैन धर्म जो है परमाणुवाद को मानता है। न्याय दर्शन परमाणुवाद को मानता है। हीन यानी बौद्ध मानते हैं, मीमांसक मानते हैं। पश्चिम में 5th सेंचुरी बीसी में डेमोक्रेटस यूसीपस दो लोग हुए। उन्होंने कहा कि दुनिया परमाणुओं से बनी है, ठीक है। साइंस ने लगभग 17वीं
सेंचुरी के आसपास परमाणुवाद को स्थापित किया और फिलॉसफी ने यह बात पहली बार जब कही तो कम से कम 6th सेंचुरी बीसी या उससे और पहले कही होगी। तो विज्ञान से करीब 2300 साल पहले दर्शन यह कह चुका था कि परमाणु से दुनिया बनी है, लेकिन दर्शन साबित नहीं करता क्योंकि दर्शन की जो mathodology है वो लेबोरेटरी वाली नहीं है। वो thoughts वाली है तो क्या होता है कि साइंस को कई बार हाइपोथेसिस मिल जाता। फिलॉसफी से। हाइपोथेसिस मुझे उम्मीद है कि आप समझ रहे हैं ना। एक संभावना मिल जाती है। उसमें रिसर्च हो सकती
है। आत्मा एक संभावना है जिस पर दर्शन रिसर्च करता है, पुनर्जन्म की बात दर्शन में कही गई है। भारत में उपनिषदों में खूब कहा गया पश्चिम में सेकेंड फिलॉसफर जो है पाइथागोरस, वो मानता है कि पुनर्जन्म होता है, आत्मा भी होती है, प्लेटो मानते हैं, पुनर्जन्म होता है। तो पाइथागोरस कह रहे हैं ये बात, प्लेटो कह रहे हैं, सब 6th सेंचुरी से 4th सेंचुरी बीसी के लोग हैं। आज का विज्ञान पैरा साइकोलॉजी में ये स्टडी कर रहा है कि क्या सच में आत्मा है नहीं, हाइपोथीसिस तो है ही, तभी तो वैज्ञानिक बोल रहा है कि
21 ग्राम की आत्मा होती है। तो ये हाइपोथेसिस है, लेकिन न्यूरो साइंस अभी जो साबित करने की तरफ बढ़ रही है उसमें संभावना कम है कि अंत में आत्मा हाथ आने वाली है। फिर पुनर्जन्म की बात कही दर्शन ने धर्म में,पुनर्जन्म पर कितने वैज्ञानिकों ने रिसर्च की है और इस बात की ठीक ठाक संभावना है कि ऐसा कुछ साबित होगा भविष्य में। मैंने एक दार्शनिक एक वैज्ञानिक का नाम जिक्र किया था। पहले भी, प्रोफेसर ian stewart आप ट्राई कीजिएगा, नेट पर सर्च कीजिएगा। उन्होंने 40 साल रिसर्च की और एक किताब लिखी 20 cases suggestive of
reincarnation की ये 20 मामले हैं जिनसे लगता है कि पुनर्जन्म होता है। हजारों मामले स्टडी किए सब खारिज कर दिए। 20 मामले खारिज कर ही नहीं पा रहे। और बाद में एक और किताब लिखी जिसमें बायोलॉजी और रिवर्स का संकेत उन्होंने जोड़ा अब वो ऐसे मामले जिनमें भारत के मामले भी कुछ हैं। मैंने जिक्र किया था कि एक मामला ऐसा है जो महात्मा गांधी भी involve हो गए थे उस मामले में। उनकी पूरी व्याख्या पढ़ के आपको कोई और Interpretation समझ ही नहीं आती है पुनर्जन्म के अलावा। तो या तो विज्ञान खारिज कर दे आगे
चलकर, या माने, कुछ तो करे पर अंतिम फैसला शायद विज्ञान कर पाएगा। जब रिसर्च के टूल्स हमारे पास और बेहतर हो जाएंगे आज की तुलना में तब शायद हो पाएगा। तो दर्शन अंतिम रूप से कोई मैटा फिजिकल चीज को स्थापित नहीं कर सकता। तीन संभावनाएं बता सकता है। दर्शन ने क्या कहा कि जो महाभूत हैं कितने हैं,चार हैं। कुछ ने कहा पांच हैं। आज जब हम कैमिस्ट्री में बेसिक एलिमेंट्स पढ़ते हैं, 118 पढ़ते हैं। उन 118 में से भी लगभग 20 हैं जो सिंथेटिक हैं, बाकी सारे तो नेचुरल हैं as it is हैं। सिंथेटिक माने
जो हमने बना लिए हैं, हैं तो वो भी बेसिक लेकिन हमने बनाए हैं उनमें सोना नहीं है लेकिन जो 98 के आसपास एलिमेंट्स हैं जो नेचर में खुद ही प्रोड्यूस किए जिनको एक दूसरे में रिड्यूस नहीं कर सकते हम, तो आज के वैज्ञानिक बोलेगा महाभूत हैं तो 98 हैं या 118 हैं। लेकिन महाभूत कई प्रकार के हो सकते हैं, ये आइडिया दिया किसने पहली बार। यह तो फिलॉसफी ने दिया ना। इसलिए कुछ गलत नहीं होता। ज्ञान की दुनिया में कुछ बेकार नहीं होता। हर चीज अपने-अपने तरीके से ज्ञान के विकास में हेल्प करती है। तो
दर्शन हाइपोथेसिस देकर हेल्प करता है और वो बड़े महत्वपूर्ण हाइपोथेसिस होते हैं। ठीक है। अनुप नाम है मेरा। सर, आचार्य रजनीश ने कहीं कहा था कि अगर चार्वाक का दर्शन जलाया नहीं जाता तो पश्चिम से ज्यादा वैज्ञानिक यहां पैदा होते तो इसमें मतलब क्या आचार्य रजनीश ने जब कहा कि अगर चार्वाकों का दर्शन जलाए नहीं जाता तो भारत में वैज्ञानिक पश्चिम से ज्यादा होते इसलिए कहा क्योंकि चार्वाक तार्किक लोग थे। सवाल खड़े करते थे और विज्ञान का रास्ता वही रास्ता जो सवाल खड़े करता है जो आस्थाओं में नहीं पड़ता है। हर चीज में doubt करता
है तो doubt करने की tendency ज्यादा होती तो लोग का स्वभाव वैज्ञानिक ज्यादा होता। आस्था वाला और कर्मकांड वाला ritualism वाला कम होता। और ये बात एकदम सही है कि अगर चार्वाकों को मौका मिलता, ऐसे इतिहास से बहुत सारे संयोग है। औरंगजेब और दाराशिकोह के युद्ध में औरंगजेब हार जाता तो भारत के इतिहास कुछ और ही होता। कलाओं के मामले में धार्मिक समन्वय के मामले में दुनिया कुछ बहुत बेहतर हो जाती। कितने संयोग है। अगर नाथूराम गोडसे की गोली से महात्मा गांधी न मरते तो इतिहास कुछ और होता। संविधान पूरा होने तक महात्मा गांधी जिंदा
रह जाते संविधान में कई ऐसी बातें होती जो अभी नहीं हैं, अब नहीं हुआ। पटेल 1950 के दिसंबर में न मरते तो शायद हम कश्मीर का समाधान और पहले कर लेते। शायद गोवा की मुक्ति 1961 में नहीं 1951 में हो जाती पऱ 1950 के दिसंबर में पटेल की मृत्यु हो गई तो इतिहास कुछ और हो गया। ऐसे ही चार्वाक का है। बख्तियार खिलजी नालंदा में आग न लगाता तो शायद हमारी ज्ञान की परंपरा कितनी समृद्ध होती हमें तो पता भी नहीं कितनी ज़बर्दस्त किताबें रही होंगी। सब जल के राख हुए। तो इतिहास बहुत संयोगों से
बनता है और एक संयोग यह भी है कि चार्वाक नहीं बचे। मेरे ख्याल से होते तो आज हर यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट्स के एचओडी के सरनेम में चार्वाक लगा होता। क्योंकि वो लोग बहुत मतलब doubt वाले लोग थे और विज्ञान में doubt करना पड़ता है। Methodic doubt ऐसा संदेह नहीं कि शक करने वाला कि कहां गए थे, किसके पास गए थे। वो बाला doubt नहीं। Methodic doubt, ज्ञान प्राप्त करने के लिए जो doubt जरूरी है वो doubt. वो विज्ञान का ethos का पार्ट है। उसके बिना विज्ञान बन नहीं सकता। तो औपचारिक रूप से समाप्त करते हैं
और अगर आप लोगों की रुचि बची रही तो अगली बार फिर मिलेंगे और धन्यवाद, बहुत-बहुत धन्यवाद, आने के लिए।