धीमी आवाज में मोबाइल में चलाकर रख दो ये मंत्र पूरी दुनिया इशारे पर नाचेगी | #sunder_kand #Hanuman

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Kesari Nandan
धीमी आवाज में मोबाइल में चलाकर रख दो ये मंत्र पूरी दुनिया इशारे पर नाचेगी | #sunder_kand #Hanuman ...
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[प्रशंसा] [संगीत] [प्रशंसा] [संगीत] जय सियाराम भक्तों कहते हैं कि सुंदर कांड का पाठ तुरंत ही फलदायक होता है इसे स्वयं भगवान शिव ने कहा है कि जो भी सुंदरकांड का पाठ करता है या सुनता है उसका जीवन धन्य हो जाता है तो आइए भक्तों आज के इस भागदौड़ के समय में बहुत ही थोड़े समय में मैं सुंदरकांड का पाठ करने जा रहा हूं तो आइए हम सभी मिलकर सुंदर कांड का पाठ करते हैं बोलिए वीर बजरंग बली महाराज की जय जय जय श्री राम जय जय श्रीराम ओम श्री गणेशाय नमः प्रणव पवन कुमार खल बन
पावक ज्ञान घन जास हृदय आगार बसही राम सर चाप धर बलि बांध प्रभु बाड़ सो तनु बनी न जाई उई घरी महती नहीं प्र दक्षिण धाई अंगद क जाऊ मैं पारा जिय संशय कछु फिरती बारा श्याम वंत कह तुम सब लायक पठ कीमी सब ही कर नायक कह रीच पति सुन हनुमाना का चुप सादी रहे बलवाना पवन तन बल पवन समाना बुद्धि विवेक विज्ञान निधान कवन सु काज कठिन जग माही जो नहीं होई तात तुम पाही राम काज लग तब अवतारा सुनत भय पर्वता कारा कनक बरन तन तेज बिराजा माना हु परर गिरिन कर राजा
सिंघ नाद करी बारा ही बारा लीला ही ना जल निधि खारा सहित सहाय रावन ही मारी आना ह इहा त्रिकूट उपपारपेट ममसी तही आनी है त्रिलोक पावन सुजस सुरमनी नारद आदि बखानी है जो सुनत गावत कहत समझत परम पद नर पावई रघुवीर पद पा खोज मधुकर दास तुलसी गाव भभ शज रघुनाथ जसु सुनहे जिनर अरु नारी तिन कर सकल मनोरथ सिद्ध करही त्रि सिरारी निलोत्पल तन श्याम काम कोटि शोभा अधिक सुनिता सु गुन ग्राम जास नाम अग खग बिक श्री राम चरित मानस पंचम सोपान सुंदर कांड श्लोक शांतम शाश्वतम प्रमेय मनम निर्वाणम शांति प्रदम ब्रह्मा
शंभु फंद्र सेव्य मनिष वेदांत वेदम विभ रामाम जगदीश्वर सुरगुरु माया मनुष्य हरिम वंदे हम करुणा करम रघुवर पाल चूड़ामण नान प्रह रघुपति हृदे स्मद सत्यम बदाम च भवान खिला अंतरात्मा भक्ति प्रक्ष रघु पुंगम निर्भर में का माद दोष रहित कुरु मानस च अतुलित बलधाम हेम शैलाभ देहम नुज वन कृषण ज्ञानी नाम ग्र गणम सकल गुण निधानम वान राणा धीम रघुपति प्रिय नमामि जामवंत के वचन सुहाए सुनि हनुमंत हृदय अति भाए तब लगी मोही परखे तुम भाई सही दुख कंद मूल फल खाई जब लगी आवसी तही देखी होई काज मोही हरष विशेष यह कहनाई सबन क
माथा चले व हर्ष हीय धरी रघुनाथा सिंधु तीर एक भूधर सुंदर कौतुक कदी चढ़े उता ऊपर बार बार रघुवीर संभारी तर के उ पवन तने बल भारी यही गिरि चरण ही हनुमंता चले उ सोगा पाताल तुरंत जिमी अमोघ रघुपति कर बाना यही भाति चले उ हनुमाना जल निधि रघुपति दूत विचारी त मैं नाथ होई श्रम हारी हनुमान तेही पारसा कर कुनि कीन प्रणाम राम काजुकी है बिनु मोहि कहां विश्राम जात पवन सुत देवन देखा जान कहु बल बुद्धि विशेष सुरसा नाम अहि के माता पठन आई कहीं तही बाता आज सुरन मोहि दीन आहारा सुनत बचन
कह पवन कुमारा राम काज कर फिर मैं आव सीता कई सुधि प्रभु ही सुनावो तब तब बदन पैठ आई सत्य कह मोई जान दे माई कब ने उ जतन देई नहीं जाना ग्रस स न मोहि कहे हनुमाना जो जन भर तही बदन पसारा कप तनु कीन दुगुन बिस्ता सोरह जोजन मुख तही यौ तुरत पवन सुत ब भय जस जस सुरसा बदन बढ़ावा ता सुद कपि रूप दिखावा सत जो जन तही आनन कीन्हा अति लघु रूप पवन सुतली बदन पैठ पुनि बाहर आवा मागा विदाता हि सुर नावा मोहि सुरन जही लागी पठा बुधि बल मरम तोर
में पावा राम काज सब करि ह तुम बल बुद्धि निधान आशीष देई गई सो हरष चले हनुमान निस चर एक सिंधु महु रही करि माया नवु के खग गव तु ते गगन उड़ाई जल बिलोक तिन के परछाई कई छा तक सोन उड़ाई ही विधि सदा गगन चर खाई सोई छल हनुमान क कीन्हा तास का फटु का फितुर तही न्हा ताही मारी मारुत सुत बीरा बार द पार गयो मति धीरा कहां जाई देखी बन शोभा गूंजत चंचर मधु लोभा नाना करु फल फूल सुहाए खग मृग वृंद देखी मन भाए सैल विशाल देखी एक आगे ता पर
धाई चढ़े उभय त्यागे ओ मान क चु कप के अधिका प्रभु प्रताप जो काल ही थाई गिरी पर चढ़ी लंका तेही देखी कहीं न जाई अति दुर्ग विशेष अति उतन जल निधि चहु पासा कनक कोट कर परम प्रकासा कनक कोट विचित्र मनी कृत सुंदराय तना घना जहु हट हट सु भट विथ चारो पूर बहु विधि बना अज बाज खच्चर निकर पद चर रथ बरु थनी को गने बहु रूप निसिचर जूर अति बल सेन बर्नत नहीं बन बन बाग उपवन बाटिका सर कूप बापी सोह नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोह कहो माल देह
विशाल शैल समान अति बल गर जही नाना अखरे नभ रही बहु विधि एक एकन तर जही करि जतन भट कोटिन विकट तन नगर चहु दिस रहि कहो महिष मानुष धेनु खर अज खल निशाचर भक्ष हि यही लाग तुलसीदास इनकी कथा कछु एक है कही रघुवीर सर तीरथ सरी रनी त्यागी गति प है सही पुर रखवारे देखी बहु कपी मन कीन विचार अति लघु रूप धरो निसी नगर करो पै सार मसक समान रूप कपि धरी लंक ही चले सुमिर नर हरी नाम लंकिनी एक निस चरी सो क चलसी मोहि नंदरी जान ही नहीं मरम सठ मोरा
मोर आहार जहां लगी चोरा उठी का एक महा कपि हनी रुधिर वमत धरनी धन मनी पुनी संभारी उठी सोलका जोरी पानी कर बन सशंका जब रावन ही ब्रह्म बर दीना चलत बरं च कहा मोही चीना निकल हो सत कप के मारे तब जाने सुनिस चर संघार ता तो मोर अति पुण्य बहुता देख नयन राम कर दूता प्रभ स नगर की जय सब काजा हृदय राखी कौशलपुर राजा गरल सुधार करही मिताई गोपथ सिंधु अनल सित लाई गरुड़ सुमेरु रेण समता राम कृपा कर चितवा जाही अति लघु रूप धरे हनुमाना बैठा नगर सुमरी भगवान मंदिर मंदिर प्रति
करि शोधा देके जत अन गित जोधा गयो दशानन मंदिर माही अति विचित्र कही जात सुनाई सायन किए देखा कपि तेही मंदिर महु न दिखी बैदेही भवन एक पुनि दीख सुहावा हरि मंदिर त बनावा रामा युद अंकित गृह शोभा बरनी न जाई नव तुलसी का वृंद तः देखी हरष क पिराई लंका निस चर निकर निवासा इहा कहां सज्जन कर बासा मन महु तरक करे कपि लागा तेही समय विभीषण उ जागा राम राम तेही सुमिरन कीन्हा हृदय हरशु कपि सज्जन न्हा ही सन हट कर य पहचानी साधु से होईन कारज हानी विप्र रूप धरी वचन सुना सुनत
विभीषण उठता आए करी प्रणाम पूछी कुसला विप्र कहा निज कथा बुझाई की तुम हरि दासन मह कोई मोरे हृदय प्रीति अति होई की तुम रामदीन अनुरागी आया ह मोही करण बड़भागी तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिर गुण ग्राम सुन हो पवन सुत रहनी हमारी जिम द सनी मोह जीब विचारी त का बहु मोहि जानी अनाथा करी ही कृपा भानु कुल नाथा तामस तनु कछु साधन नाही प्रीति न पद सरोज मन माही अब मोहि भा भरोस हनुमंता बिन हरि कृपा मिल ही नहीं संता जो रघुवीर अनुग्रह कीना
सो तो म मोहि दरस हट दीना सुनहु विभीषण प्रभु के रीति करही सदा सेवक पर प्रीति कहा ह कवन में परम कुलीना कपि चंचल सब ही विधि हीना रात लेई जो नाम हमारा तेही दिन ही ना मिले आहारा असम अधम सखा सुनू मोह पर रघुवीर कीनी कृपा सुमरी गुन भरे बलोचन नी जानत ह अस स्वामी बसारी फिर हित काहे न होई दुखारी यही विधि कहत राम गुण ग्रामा पाव अ निर्वाचन सब कथा विभीषण कही जही विधि जनक सुदात रही तब हनुमंत कहा सुन भ्राता देखी चाह जानकी माता जुगती विभीषण सकल सुनाई चले उ पवन सुत
विदा कराई करि सोई रूप गयो पुनिता हवा बन अशोक सीता रजवा देखि मनही महु कीन प्रणा बैठ बीती जात नि सजामा कृष तनु शीस जटाय एक बेनी जपत हृदय रघुपति गुण श्रेणी तीज पद नयन दिए मन राम पद कमल लीन परम दुखी भा पवन सुत देखी जान की दीन तरु पल्लव महु रहा लुकाई करई विचार करो का भाई यही अवसर रामन तः आवा संग नारी बहु किए बनावा बहु विधि खल सतही समझावा साम दाम भय भेद दिखावा कह रावन सुन सुमुख सयानी मंदो दरी आदि सब रानी तब अन चरी कराऊ पन मोरा एक बार बिलोक
मम ओरा त्रण धरी ओट कहत बै देही सुमरी अवध पति परम स्नेही सुन दस मुख खोत प्रकासा कबहु की नलिनी करई विकासा अस मन समझो कहती जानकी कल सुध नहीं रघुवीर बान की सठ सुने हरि आन मोही अधम नि लज्ज लाज नहीं तोही आपो है सुनी स्योत सम राम ही भानु समान पुरुष वचन सुनि काढ ससी बोला अति खिसियानी सीता त मम कृत अपमान कटि अ तब सिर कठिन कपाना ना हित सपद भानु मम बानी सुमुखी होती नत जीवन हानी श्याम सरोज दाम सम सुंदर प्रभु बुज करी कर सम दस कंदर सो बुज कंठ कि
तव असि घोरा सुन सट अस प्रवा पन मोरा चंद्र हास हरु मम परिता पम रघुपति बिरह अनल संजम शीतल निशित बहसी बर धारा कह सीता हरु मम दुख भारा सुनत बचन पुनि मरन धावा मैं तनया कही नीति बुझावा कहसी सकल निस चरण बुलाई सीत ही बहु विधि त्रास हु जाई मास दिवस महु कहा न माना तो मैं मारि ब काढ कृपा ना भवन गयो दस कंधरपुर वृंद सीत ही त्रास दिखा वही रही रूप बहु मंद त्रिजटा नाम राक्षसी एका राम चरण रति निपन विवेका सन हो बोली सुना यसी सपना सीत ही सेही करहु इत अपना
सपने बानर लंका जारी जातु धान सेना सब मारी खर आरूढ़ नगन दस सीसा मुंडिया लंका मन विभीषण पाई नगर फिरी रघुवीर हाई तब प्रभु सीता बोली पठाई यह सपना मैं कहा पुकारी होई सत्य गए दिन चारी ता सु बचन सुनते सब डरी जनक सुता के चरण ही परी जह त कई सकल तब सीता कर मन सोच मास दिवस बीते मोही मार ही निस चर पोच त्रिजटा सन बोली कर जोरी मातु वि पति संगिनी त मोरी तजो देह कर बेगी उपाई दुस ब रहु अब नहीं सही जाई आनि काठ रच चिता बनाई मात अनल पुनि देहि
लगाई सत्य करही मम प्रीति सयानी सुने को श्रवण सूल सम बानी सुनत बचन पद गहि समझाय अस प्रभु प्रताप बल सुजस सुना यस निसिन अनल मिल सुन सुकुमारी अस कहि सो निज भवन सिधारी कह सीता विधि भापतियाही न पावक मिट हि न सूला देखि अत प्रकट गगन अंगारा अवनी न आवत एक उतारा पावक में सस सवत न आजी मान मोहि जानी हत भागी सुनही विनय मम विटप अशोका सत्य नाम करु हरु मम सोका नूतन किसले अनल समाना देही अग्नि जनि करही निदाना देखि परम बरहा कुल सीता सोचन कपही कलप सम बीता कप करि हृदय विचार
दीन मुद्रिका डारी तब जनु अशोक अंगार दीन हरष उठाई कर ग तब देखी मुद्रिका मनोहर राम नाम अंकित अति सुंदर चकित चित ी पहचानी हर्ष विषद हृदय अकुला जीति को सकाई ना जय रघुराई माया ते अस रच नहीं जाई सीता मन विचार कर नाना मधुर वचन बोले हनुमाना रामचंद्र गुण वरन लागा सुनत ही सीता कर दुख भागा लागी सुने श्रवण मन लाई आदि होते सब कथा सुनाई श्रवण मृत जही कथा सुनाई कही सु प्रकट होती किन भाई तब हनुमंत निकट चली गया ऊ फिर बैठी मन बिस्म मैं भय रामदूत में मातु जान की सत्य शपथ
करुणा निधान की यह मुद्रिका मातु मैं आनी दीनी राम तुम क सहि दनी नर बानर ही संग कहो कैसे कही कथा भई संगति जैसे कप के वचन स प्रेम सुनी उपजा मन विश्वास जाना मन क्रम वचन यह कृपा सिंधु कर दास हरि जन जानी प्रीति अति गाढ़ी सजल नयन पुलकावली बाढ़ बढ़त विरह जलधि हनुमान भय हुता मो कह जल जाना अब कह कुशल जाऊ बलिहारी अनुज सहित सुख भवन खरारी कोमल चित कृपालु रघुराई कप के ही हेतु धरी नि ठुराठील ताता होई है हि निरख श्याम मृदु गाता बचन आव नयन भर बारी अह नाथ ह
निपट बसारी देखी परम बिरहा कुल सीता बोला कपे मृदु वचन विनीता मा सु कुशल प्रभु अनुज समेतालु देखी सुकृपा निकेता जनि जाननी मान जिय ऊना तुम हद प्रेम राम के दना रघुपति कर संदेश अब सुनु जननी धरि धीर अस कही कप गद गद भय भरे बलोचन नीर कहे राम वियोग तब सीता मो कह सकल भए विपरीता नवतर किसल मन हु कसान काल निसा सम निस सस भानु कुबल बपिन कुतु बन सरीसा बारित तप तेल जनु बरसा जे हित रहे करत तेई पीरा उर्ग स्वास सम त्रिविध समीरा कहे होते कछु दुख घट होई काही कहो यह
जान न कोई तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा जानत प्रिया एक मनु मोरा सो मनु सदा रहत तोही पाही जानु प्रीति रस इतने माही प्रभु संदेश सुनत बैदेही मगन प्रेम तन सुधि नहीं तेही कह कप हृदय धीर धरु माता सुमिर राम सेवक सुखदाता कुर आन हु रघुपति प्रभुताई सुनि मम वचन तज कद राई निस चर कर पतंग सम रघुपति बान कृषण जननी हृदय धीर धरू जरे निशाचर जान जो रघुवीर होती सुधि पाई करते नहीं बिलब रघुराई राम बान रवि उए जानकी तम बूत कह जातु धान की अहि मातु मैं जाऊ लवाई प्रभु आय सुनही राम
दुहाई कक्षक दिवस जननी धरु धीरा कपिन सहित अहि रघुवीर निस चर मार तोही ले जही ति पुर नार दाद जस गही है सुत कपि सब तुम ही समाना जातु धान अति भट बलवाना मोर हृदय परम संदेह सुनि कपि प्रगट कीन निज देहा कनक भूधर कार शरीरा समर भयंकर अति बलबीरा सीता मन भरोस तब भय पुनि लघु रूप पवन सुत लय सुन माता साखा मृग नहीं बल बुद्धि विशाल प्रभु प्रताप ते गरुड़ ही ई परम रघु व्याल मन संतोष सुनत कपि बानी भगति प्रताप तेज बल सानी आशिष दीनी राम प्रिय जाना होह तात बल शल विधाना
अजर अमर गुण निधि सुत होऊ करहु बहुत रघुनायक छो करहु कृपा प्रभु अस सुनि काना निर्भर प्रेम मगन हनुमाना बार बार ना यसी पद सीसा बोला वचन जोरी कर कीसा अब कृत कृत भयाऊ मैं माता आशीष तब अमोग विख्यात सुनहु मा तो मोही अतिशय भूखा लागी देखि सुंदर फल रूखा सुन सुत कर रही बपिन रखवारी परम सु भट रजनी चर भारी न कर भय माता मोहि नाही जो तुम सुख मानव मन माही देखी बुद्धि बल निपुल कपी कहे उजान की जाह रघुपति चरण हृदय धरी तात मधर फल खाऊ चले उ नाई सिर पैठ बागा फल
खाए स तरु तोरे लागा रहे तहा बहु भट रखवारे कछु मार स कछु आई पुकारे नाथ एक आवा कप भारी तेही अशोक बाटिका उजार खाए स फल अरु विटप उपरे रक्षक मर्दी मर्दी महि डारे सुनी रावन पठ ए भटना ना तिन देखी गरजे हनुमाना सब रजनी चर कपि सारे गए पुकारत कछु अद मरे पुनि पठ तई अच्छ कुमारा चला संग ले सु भट अपारा आवत देखी विटप गई र्जा ताही नि पाती महा धुनि गर्जा कछु मार स कछु मर देसी कछु मिली ससी धरि धोरी कछु पुनि जाय पुकारे प्रभु मर कट बल भोरी सुनि सुत
बद लंकेश रि साना पठ स मेघनाथ बलवाना मार स जन सुत बांधे सुताई देखिए कपी कहां कर आई चला इंद्रजित अतुलित जोधा बंधु निधन सुनी उपजा क्रोधा कप देखा दारुण भट आवा कट कटाई गरजा अरु धावा अति विशाल तरु एक उपारा बरत कीन लंकेश कुमारा रहे महा भट ता के संगा गही गही कपी मर गई निज अंगा बिन नि पाति ताहि सन बाजा भीरे जुगल मान हो गजराजा उठी कामारी चढ़ा तर जाई ताही एक छन मूर्छा आई उठी बहोर किन हसी बहु माया जीति न जाई प्रभंजन जाया ब्रह्म अस्त्र तेही सांधा कपि मन कीन विचार
जोन ब्रह्म सर मानव महिमा मिटाई अपार ब्रह्म बान कप कहु तेही मारा परती हो बार कटक संघरा यही देखा कपि मूर्चित भयो नाग पास बांधे से ले गयो जास नाम जप सुनहु भवानी भव बंधन काट हि नर ज्ञानी दास दूत की बंध तरु आवा प्रभु का रज लगी की पही बंधावा कपि बंधन सुन निस चर दए कौतुक लागी सभा सब आए दस मुख सभा दिखी कप जाई कहीं न जाई कछु अति प्रभुताई कर जोरे सुर दसप विनीता बुकुट लोकतक सभीता देखी प्रताप कपि मन शंका जिम अहि गन महु गरुड़ अंका कपही बिलोक दशानन बहसा कही
दुर बाद सुत बद सुरत कीन पुनी उपजा हृदय विषाद कह लंकेश कवन त की सा केही के बल धा लेही बन खीसा ध श्रवण सुनही नहीं मोही देख अति अंक सट तोही मारे निस चर केही अपराधा कहु सठ तोहीन प्राण कई बाधा सुन रावण ब्रह्मांड निकाया पाई जा सुबल विचर माया जा केवल रंच हरि ईसा पालतू जत हरत दस सीसा चावल शीस धरत सह सासन अंड कोस समेत गिरि कानन धर जो विविध देह सुर त्राता तुम से सखन सिखावन दाता हर को दंड कठिन जही भंजय समेत नप दल मद गंजा खर दूषण त्रिशर अरु बाली
बधे सकल अतुलित बलशाली जा के बल लभ लेस ते जीत ह चराचर झारी तास दूत में जा कररी हरि आने हो प्रिय नारी जानव मैं तुम्हारी प्रभुताई सहस बाऊ सन परी लरा समर बाली सन करी जसु पावा सुनी कपि बचन बहसी बि हरावा खाय ह फल प्रभु लागी भूखा कपी सुभव तो तोर रूखा सबके देह परम प्रिय स्वामी म रही मोहि कु मरग गामी जिन मोहि मारा ते मैं मारे तेही पर बाधे उ तन तुम्हारे मोहि न कछु बांधे कई लाजा कीन चाहा निज प्रभु कर काजा नती करहु जोरी कर रावन सुनहु मान तजी मोर
सिखावन देख हो तुम निज कु लही बिचारी भ्रम तजी भज ह भगत भै हारी जाके डर अति काल राई सोसुर असुर चराचर खाई ता सो बयरु क बहु नहीं कीजे मोर कहे जानकी दीज प्रणतपाल रघुनायक करुणा सिंधु खरारी गए शरण प्रभु राखी है तब अपराध बसारी राम चरण पंकज उर् धर लंका अचल राज तुम करहु ऋषि फुल अस्ति जसु विमल मायंका तेही ससी महु जनि होह कलंका राम नाम बिनु गिरा न सोहा देखो बचारी त्यागी मधम हा बसन हीन नहीं सोह सुरारी सब भूषण भूषित बरनारी राम विमुख संपति प्रभुताई जाई रही पाई बिनु पाई सजल
मोल जिन सर तन नाही बरस गए पुनित बही सुखाई सुनु दस कंठ कहहु पन रोपी विमुख राम त्राता नहीं कोपी शंकर सहस विष्णु आज तोही सक न राखी राम कर द्रोही मोह मूल बहु सूल प्रद त्याग तम अभिमान भज राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान तप कही कप अति हित बानी भगति विवेक विरती नसानी बोला बहसी महा अभिमानी मिला हम ही कपि गुरु बड़ ज्ञानी मृत्यु निकट आई खल तोही लाग स अधम सिखावन मोही उल्टा हो यही कह हनुमाना मति ब्रम तोर प्रकट में जाना सुन कप वचन बहुत ख सियाना बेगिन हर मोड़ कर प्राणा सुनत
निशाचर मारन धय सचि वन सहित विभीषण आए नाई सीस करि विनय बहुता नित विरोध ना मारि दूता आन दंड कछु करय गोसाई सब ही कहा मंत्र भल भाई सुनत बहसी बोला दस कंदर अंग भंग करि पठाई बंदर कप के ममता पूछ पर सब ही क ह समझाए तेल बोरी पट बांधी पुनी पा देहु लगाई पछ हीन बानर तह जाही तब सठ निज नाथ ल आय जिनके कीन हसी बहुत बढ़ाई देख मैं तिनके प्रभुताई वचन सुनत कपी मन मुस्काना भई सहाय शारद में जाना जातु धान सुनि रावन बचना लागे रचे मोड़ सुई रचना रहा न नगर
बसन गृत तेला बाढ़ पूछ कीन कप खेला कौतुक कहां आए पुर बासी मरही चरण करही बहु हासी पा जही ढोल देही सब तारी नगर तेरी मुनि पूच पजारी पावक जरत देखी हनुमंता भय परम लघु रूप तुरंत बबु की चढ़े उ कप कनक अटारी भई सभी त निशाचर नारी हरि प्रेरित ते ही अवसर चले मरुत 19 अट हास करी घर जा कपी बाढ़ लाग आकास देह विशाल परम हरु आई मंदिर ते मंदिर चढ धाई जर नगर भा लोग बिहाला झपट लपट बहु कोट कराला तातु मा तुहा सुनिए पुकारा ही अवसर को हम ही उभरा हम जो
कहा यह कपी नहीं होई बानर रूप धरे सुर कोई साधु अवज्ञा कर फल ऐसा जर नगर अनाथ कर जैसा जारा नगर नि मिशे कमाही एक विभीषण कह गृह नाही ता कर दूत अनल जही सिरजा जरा ना सोते कारण गिरजा उलट पलट लंका सब जारी कूदी परा पुनि सिंधु मजारी पूछ बुझाई खोई धरि लघु रूप बहोरी जनक सुता के आगे थाड़ भय कर जोरी मातु मोहि द जय कुछ चीना जैसे रघुनायक मोहि दीना चूड़ा मण उतार तब दय हरष समेत पवन सुत लय कहे हु तात असमोर प्रनामा सब प्रकार प्रभु पूरण कामा दीन दयाल विरद संभारी
हर नाथ मम संकट भारी तात सक्र सूत कथा सुनाए बान प्रताप प्रभु ही समझा मास दिवस महु नाथ ना आवा त पुनि मोहि जियत नहीं पावा कहु कप केही विधि राखो प्राणा तुम ह तात कहत अब जाना तोही देख सीतली भई छाती पुनि मो कह सोई दिन सो राती जनक सुत समझाई करी बहु बध धीरज दीन चरण कमल सिर नाई गव अनु राम पहिन चलत महा धुनि गर्ज सभारी गर्भ सव सुनि निस चर नारी नाद सिंधु ही प रही आवा शबद किल किला कपिन सुनावा अर्शे सब बिलोक हनुमाना नूतन जन्म कपिन तब जाना मुख प्रसन्न
तन तेज बराजा कीने श्री रामचंद्र कर काजा मिले सकल अति भय सुखारी तलपत मीन पाव जिमी बारी चले हरष रघुनायक पासा पूछित कहत नवल इतिहासा तब मधुवन भीतर सब आए अंगद सम्मत मधु पल खाए रखवारे जब बर्जन लागे मुष्किन सब भागे जाय पुकारे सब बन उजार जुबराज सुन सुग्रीव हरशु कपी करि आए प्रभु काज जोन होती सीता सुधि पाई मधुबन के फल स कही की खाई यही विधि मन विचार कर राजा आई गए कपि सहित समाजा आई सबनी नावा पद सीसा मिले उ सबनी अति प्रेम का पीसा पूछ कुशल कुशल पद देखी राम कृपा भा
काजु विशेष नाथ काजु कीने हनुमाना राखे सकल कपिन के राणा सुन सुग्रीव बहुर तेही मिल कपिन सहित रघुपति पही चले राम कपिन जब आवत देखा किए काजु मन हर्ष विशेष अटक सिला बैठे दौ भाई परे सकल क पिचर नहीं जाई प्रीति सहित जब भेटे रघुपति करुणा पुंज पूछ कुशल नाथ अब कुशल देखी पद कंज जामवंत क सुन रघुराया जा पर नाथ करो तुम दाया ताही सदा शुभ कुशल निरंतर सुर नर मुनि प्रसन्नता ऊपर सोई विजय विनय गुण सागर तास सुजस त्रैलोक्य सब काजू जन्म हमार सुफल भा आजु नाथ पवन सुत कीन जो करनी सह सहम
मुख न जाई सो बरनी पवन तन के चरित सुहाए जामवंत रघुपति ही सुनाए सुनत कृपानिधि मन अति भाए पुनि हनुमान हरष ही अलाय कहु सात के ही भाती जान की रहती करती रक्षा स्व प्राण की नाम बा हरू दिवस निसी ध्यान तुम्हार क पाट लोचन निज पद जंत्र जाहि प्राण के ही बाट चलत मोहि चूड़ा मन दही रघुपति हृदय लाई सुई लीन नाथ जुगल लोचन भरी बारी वचन कहे कच जनक कुमारी अनुज समेत गहे प्रभु चरणा दीन बंधु प्रणता रति हरना मन क्रम वचन चरण अनुरागी कही अपराध नाथ हो त्यागी अवगुण एक मोर में जाना
बिछु रत प्राण न पयाना नाथ सु नयन ही को अपराधा निशर प्राण करही हट बाधा विरह अग्नि तन थूल समीरा स्वास जर छन माहि शरीरा नैन स्त्र वहि जल निज हित लागी जरे न पाव देह बिरगी सीता के अति विपत विशाला बिन ही कहे भल दीन दयाला निमिष निमिष करुणानिधि जाहि कलप सम बीति देग चलिए प्रभु आनिया भुज बल खल दल जीती सुनि सीता दुख प्रभु सुख ऐना भरि आए जल राज बनना वचन काय मन मम गति जाही सपने उ बूझ वि पति की ताही कह हनुमंत वि पति प्रभु सोई जब तब सुमिरन भजन न
होई केतिक बात प्रभु जात धान की रिप ही जीती आनि बी जान की सुन कपि तो ही समान उपकारी नहीं को सुर नर मुनि तन धारी प्रति उपकार करौ का तोरा सन्मुख होई न सकत मन मोरा सुन सुत तोही रीन मैं नाही देखे करी विचार मन माही पुनि पुनि कपही चितवन त्राता लोचन नीर पुलक अति गाता सुनी प्रभु बचन बिलोक मुख गात हरष हनुमंत चरण परे प्रेमा कुल त्राहि त्राहि भगवंत बार बार प्रभु चाहे उठावा प्रेम मगन तोई उठव न भावा प्रभु कर पंकज कप के ससा सुमिर सु मगन गौरी सा सावधान मन करि पुनि
शंकर लागे कहन कथा अति सुंदर कपि उठाई प्रभु हृदय लगावा कर गई परम निकट बैठा वा कहु कपि रावन पालि लंका केही विधि दह दुर्ग अति बंका प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना बोला वचन विगत अभिमाना सखा मृग के बड़ी मनु साई शाखा ते शाखा पर जाई नाधी सिंधु हाटक पुर जारा निसिचर गण बद विपिन उजा सो सब तब प्रताप रघुराई नाथ न कछु मोरी प्रभुताई ता कह प्रभु कुछु अगम नहीं जा पर तुम अनुकूल तब प्रभाव प बावन लागी जारी सक खल तोल नाथ भक्ति अति सुख दयनी देहु कृपा करी अन पायनी सुनि प्रभु परम सरल
कपि बानी एवम मस्तु तब कह उ भवानी माराम सुभाऊ जेही जाना ताही भजन तजी भावना आना यह संवाद जास उर आवा रघुपति चरण भगति सोई पावा सुनी प्रभु वचन कही कप वृंदा जय जय जय कृपाल सुख कंधा तब रघुपति कपि पति ही बुलावा कहा चले कर कर बनावा अब बिलब के ही कारण की ज तुरत कपिन कह आय सु दी जय तुक देख सुमन बहु बर्ष तब ते भवन चले सुर हर्ष कपी पति बेगी बुलाए आए जूत अप जूत नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरोत प्रभु पद पंकज ना वही सी सागर जही भालु महाबल
की सा देखी राम सकल कपि सेना चितई कृपा करि राज ब नैना राम कृपा बल पाई कपि भए पक्ष जुत मन गिरिंका तब कीन पयाना सगुन भए सुंदर सुभ नाना जास सकल मंगलम कीती तासु पयानले फरक बाम अंग जनु कहि देही जोई जोई सगुन जान की ही होई असग भैरा बन ही सोई चला कटुक को बरने पारा गर जही बानर भालू अपारा नख आयुध गिरि पादप धारी चले गगन मही इच्छाधारी ी नाद भालू कप करही डगमगा ही दिग्गज चिक्क ही चिक्क ही दिग्गज डोल महि गिरी लोल सागर खर भरे मन हर्ष सब गंधर्व सुर मुनि
नाग किन्नर दुख तरे कट कट ही मर कट बिकट भट बहु कोटि कोटि धाव ही जय राम प्रबल प्रताप कोशल नाथ गुण गन गाव ही सही सके न भार उधार अहि पति बार बारही मोह ही गह दसन पुनी पुनि कमठ पुष्प कठोर सोख मि सोहनी रघुवीर रुचिर प्रयाण परिस्थिति जानी परम सुहावनी जनु कमठ खर पर सर्प रास स लिखत अभी चल पावनी ही बध जाई कृपानिधि उतरे सागर तीर ज तह लागे खान फल भालू बफल कपि वीर उहा निशाचर र स संका जब ते जारी गयो कपि लंका निज निज गृह सब करही बिचारा नहीं निस
चर कुल केर उभरा सुदूत बल बरनी न जाई तेही आए पुर कवन भलाई दो तिन सन सुनी पुर जन बानी मन दो दरी अधिक अकुला रहस जोर कर पति पग लागी बोली वचन नीति रस पागी कंत करस हरि सन परि हरहु मोर कहा अति हित हिय धर समझत जा सुदूत कई करनी स्त्र वही गर्भ रजनी चर धरनी ता सुनारी निज सचिव बुलाई पठव कंत चह भलाई तव कुल कमल बपिन दुखदाई सीता सी त निशा सम आई सुन हो नाथ सीता दिन दन है हित न तुम्हार शंभु अजकीन है राम बान अहि गन सरिस निकर निशाचर
भेक जब लगी ग्रसित न तब लगी जतन करहु तज टेक श्रवण सुनी सता करि बानी बहसा जगत विदित अभिमानी सय स्वभाव नारी कर साचा मंगल मौ भय मन अति काचा जो आव मर कट कटकाई जी है विचार निसी चर खाई कपही लो कप की त्रासा ता सुनारी सीत बड़ हासा अस कही बहस ताही उरलाई चले सभा ममता अधिका मंदोदरी हृदय कर चिंता भय कंत पर विधि विपरीता बैठे सभा खबरी असि पाई सिंधु पार सेना सब आई झ से सचिव उचित मत क ह ते सब हसे मट करी रहा हू जिते ह सुरा सुर तब शम
नाही नर बानर के ही लेख माही सचिव बद गुरु तीन जो प्रिय बोलही भय आस राज धर्म तन तीन कर होई बगही नास सुई रावन कहु बनी सहाई अस्तुति करही सुनाई सुनाई अवसर जानि विभी सनु आवा भ्राता चरण सी सुते हि नावा पुनि सिर नाई बैठ निज आसन बोला वचन पाई अनुशासन जो कृपाल पूछ मोई बाता मति अनुरूप कह हित ताता जो आपन चाहे कल्याणा सदस सुमति शुभ गति सुख नाना सो पर नारी लीलर गोसाई कजव चौथी के चंद किनाई चौ भुवन एक पति होई भूत द्रोह तिष्ठ नहीं सोई गुन सागर नागर नर जो अलप
लोभ बल कहि न को काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ सब परि हरि रघुवीर ही भज भज जही संत सात रामन नर भू पाला भुवनेश्वर का लहु कर काला ब्रह्म अनामय अज भगवंता व्यापक अजित अनादि अनंता गो द्विज देनु देव हितकारी कृपा सिंधु मानुष तनु धारी जन रंजन भंजन खल भ्राता वेद धर्म रक्षक सुनु भ्राता हि बयरु तज नाय माथा प्रण तारत भंजन रघुनाथा देहु नाथ प्रभु कहु बैदेही भज हो राम बिनु हेतु सनेही शरण गए प्रभु ताहु न त्यागा विश्व ब्रोह कृत अगद हि लागा जा सु नाम त्र ताप न सावन
सोई प्रभु प्रकट समझ जिय रावन बार बार पद ला गऊ विनय करौ दस श परि हरि मान मोहद भज कुशला दीश मुनि पुस्ती निज शिष्य सन कही पठाई यह बात सुरत सुम प्रभु सन कही पाय सु अवसर सात मलव अति सचिव सयाना तास वचन सुनि अति सुख माना थ अनुज तब नीति विभूषण सो उर धर सो कहत विभीषण रिपत कर श क हत सट दो दूरी न करह इहा हैई को मलव गृह गयो होरी क विभीषण पुनि कर जोरी सुमत कुमति सब क उर रही नाथ पुराण निगम अस कही जहां सुमति त संपति नाना जहां
कुमति त बिपति निदाना तब उर कुमति बसी विपरीता हित अन हित मान रिख प्रीता काल राति निस चर कुल केरी तेही सीता पर प्रीति घनेरी सात चरण गही मांग राख मोर दुलार सीता देह राम कहू अहित न होई तुम्हार बुद्ध पुराण श्रुति सम्मत बानी कही विभीषण नीति बखानी सुनत दशानन उठा रिसाई खल तोही निकट मृत्यु अब आई जानी न जाई निशाचर माया काम रूप के ही कारण आया भेद हमार लेन सट आवा राखि अ बांधी मोहि अभावा सखा नीति तुम नीक विचारी मम पन शरणागत बहारी सुनी प्रभु वचन हरष हनुमाना शरणागत बछल भगवाना शरणागत कहो
जेत जही निज हित अनुमान ते नर पावर पाप में दिन है लोकतक बदला गई जाह आए शरण तज ह नहीं ताहु सन्मुख होई जीव मोहि जब ही जन्म कोटि अग्ना सहि त बही पाप वंत कर सहस सुभाऊ भजन मोर तेही भावन काऊ चपे दुष्ट हृदय सोई होई मोरे सन्मुख आवक सोई निर्मल मन जन सो मोहि पावा मोहि कपल छल छिद्र न भावा भेद लेन प वा दस सीसा तब हुन कच भ हानि क पीसा जग महु सखा निशाचर जेते लक्ष्मन हन ही नि मिश मुह तेते जो सभी तो आवा सरनाई रख ताही प्राण की नाई
उभय भाति तेही आन हस क कृपा निकेत जय कृपाल कही कपी चले अंगत हनु समेत सादर तेही आगे करि बानर चले जहां रघुपति करुणाकर दू रहीते देखे दव भ्राता नैना नंद दान दाता बहुरी राम छवि धाम लोकी रहे उठ टुकी एकटक पल रोकी बज प्रलंबित प्रत भय मोचन सिंध कंध आयत उर सोहा आनन अमित मदन मन मोहा नयन नीर पुलकित अति गाता मन धरि धरी कही मृदु बाता नाथ दशानन करम भ्राता निसिचर वंस जन्म सुर त्राता सहज पाप प्रिय तामस देहा जथा उल कही तम पर नेहा श्रवण सुजस सुनि आय प्रभु भंजन भव भीर त्राहि
त्राहि आरती हरण सरण सुखद रघुवीर अस कहि करत दंडवत देखा तुरत उठे प्रभु हर्ष विशेषा तीन वचन सुनी प्रभु मन भावा भुज विशाल गही हृदय लगावा अनुज सहित मिले ख बैठार बोले वचन भगत बहारी कहु लंकेश सहित परिवारा कुशल कुठार बास तुम्हारा ल मंडली बसह दिन राती सखा धर्म निभाई के भाति जानव तुम्हारी सब रीति अति नै निपन न भाव अनीति बरु भल बास नरक करता था दुष्ट संग जनि देई विधाता अब पद देखी कुशल रघुराया जो तुम कीनी जान जन दया तब लगी कुशल न जीव कहूं सपने हो मन विश्राम जब लगी भजते न
राम कहूं शोक धाम तज काम तब लगी हृदय बसत खल नाना लोभ मोह मच्छर मद माना जब लगी उर्न बसत रघुनाथा धरे चाप यक कटि भाता ममता तरुण तमी अंधियारी राग द्वेष उलुक सुख कारी त लगी बसती जीव मन माही जब लगी प्रभु प्रताप रब नाही अब मैं कुशल मिटे भय भारे देखी राम पद कमल तुम्हारे तुम कृपाल जा पर अनुकूला ताही न व्याप त्रिविध भव सूला न निस चर अति अधम सुभाऊ सुभ चरण कीन नहीं काऊ जा सु ूप मुनि ध्यान ना आवा तही प्रभु हरष हृदय मोहि लावा अहो भाग्य मम अमि अति राम
कृपा सुख पुंज देख नयन रंच शिव सेव्य जुगल पद कंच सुनहु सखा निज कह सुभाऊ जान भुसुंडि संभु बिर जाऊ चनर होई चराचर द्रोही आवे स सरण तक मोहि तज मध मोह कपट छलना ना करौ सद्य तेही साधु समाना जननी जनक बंधु सुत दरा तनु धनु भवन सरहद परिवारा सबक ममता ताग बटोरी मम पदम नही बांध बरी डोरी समदर्शी इच्छा कछु नाही हरस सोक भय नहीं मन माही अस सज्जन मम उर् बस कैसे लोभ हृदय बसई धनु जैसे तुम्ह सरी के संत प्रिय मोरे धरम देह नहीं आन नि होरे सगुन उपासक परहित निरत नीति दण
नेम ते नर प्राण समान मम जिनके द्विज पद प्रेम सुन लंके से सकल गुण तोरे ताते तुम अतिशय प्रिय मोरे राम वचन सुनि बानर जू था स कही जय कृपा बरू था सुनत विभीषण प्रभु के वाणी नहीं अघात श्रवण मृत जानी पद अंबुज गई बारही बारा हृदय समात न प्रेम अपारा सुनहु देव स चराचर स्वामी प्रणतपाल उर अंतरजमी उर कछु प्रथम वासना रही प्रभु पद प्रीति सरित सो बही अब कृपाल निज भगति पावनी देहो सदा शिव मन भावनी एवम अस्तु कही प्रभु रण धीरा मागा तुरत सिंधु कर नीरा जदपि सखा तब इच्छा नाही मोर दरस
अमोद जग माही अस कही राम तिलक तेही सारा सुमन विष्टि नव भई अपारा रावण क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड जरत विभीषण राखे दीने उ राजु अखंड जो संपति शिव रावन ही तीन ही दिए दस मात सोई संपदा विभीषण ही सकज दीन रघुनाथ अस प्रभु छाड़ भज ज आना ते नर पशु बिन कुछ विशाना निज जन जानि ताही अपना वा प्रभु स्वभाव कप कुल मन भावा पुनि सर्वज्ञ सर्व उरवासी सर्व रूप सब रहित उदासी बोले वचन नीति प्रतिपालक कारण मनुज नुज कुल घाल सुन कपीश लंका पति वीरा केहि विधि तर जलदि गंभीरा संकुल मकर उरगी
जाती अति अगाध दस्तर सब भाती कह लंकेश सुनहु रघुनायक कोटि सिंधु शोषक तव सायक जदपि तद पि निति असस विनय करय सागर सन जाई प्रभु तुम्हार कुल गुरु जलधी कह उपाय विचारी दिनु प्रयास सागर तरही सकल भालुक पधारी सखा कही तुमनी की उपाई करय देव जो होई सहाई मंत्र न यह लक्षमन मन भावा राम वचन सुनि अति दुख पावा नाथ देव कर कवन भरोसा शोष सिंधु करि मन रोसा कादर मन कह एक अधारा दैव दैव आलसी पुकारा सुनत बहसी बोले रघुवीरा ऐसे ही करब धर मन धीरा अस कही प्रभु अनु जही समझाई सिंधु समीप गए
रघुराई प्रथम प्रणाम कीन सिर नाई बैठे पुनी तट दर्भ ड साई जब ही विभीषण प्रभु पही आए पीछे रावण दूत पठाई सकल चरित तिन देखे धरे कपट कपि देह प्रभु गुण हृदय सराही शरणागत पर नेह प्रकट बखान राम सुभाऊ अति सपे मगा बसरी दुराव रिपु के दूत कपिन तब जाने सकल बांध का पीस पहिया कह सुग्रीव सुनाऊ सब बानर अंग भंग करी पठव नि सचर सुनि सुग्रीव वचन क फिधा ए बांधी कटक चहु पास फिराय बहु प्रकार मारन कपि लागे दीन पुकारत तद पिन त्यागे जो हमार हर नासा काना तेही कोशिला धीस के आना सुनी
लक्ष्मन सब निकट बुलाए दया लागी हंसी तुरत छुड़ाए रावण कर दी जहु यह पाती लक्ष्मन वचन बाच कुल घाती कहे मुखाग्नि पद माथा चले दूत बर्नत गुण गाथा कहत राम जस लंका आए रावण चरण शीश तिन नाए बहसी दशानन पूछी बाता कहसी न सुख आपन कुसला था कुन कह खबरी विभीषण केरी जाहि मृत्यु आई अति री करत राज लंका सट त्यागी हो यही जब कर कीट अभागी पुनि कहु भालु कीस कटकाई कठिन काल प्रेरित चली आई जिनके जीवन कर रखवा भयो मृदुल चित सिंधु बिचारा कह तपसन के बात बहोरी जिनके हृदय त्रास अति मोरी की
भई भेट के फिरी गए श्रवण सुजस सुनी मोर कह सनरी पु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर नाथ कृपा करी पूछ उ जैसे मानव कहा क्रोध तह तैसे नाथ कृपा करी पूछे उ जैसे मानव कहा क्रोध तज जैसे मिला जाई जब अनुज तुम्हारा जाता ही राम तिलक ते ही सारा रावण दूत हम सुनि काना कपिन बांध दीने दुख नाना श्रवण नासिका काटे लागे राम शपथ दीन है हम त्यागे पूछे हो नाथ राम कटकाई बदन कोटि सत बरनी न जाई नाना बरन भालु क पधारी बकटा नन विशाल बकारी ज दह उ हते उ सुत तोरा
सकल कपिन महते बल धोरा अमित नाम भट कठिन कराला अमित नाग बल विपुल विशाला विविध म अंद नील नल अंगद गद विक टासी दद मुख के हरि नि सठ सठ श्याम वंत बल रासी एक कप सब सुग्रीव समाना इन सम कोटिन गैन कु नाना राम कृपा अतुलित बल तीन ही तनु समान त्रिलोक ही गन ही असम सुना श्रवण दश कं धर पदम 18 जू तप बंदर नाथ कटक मह सो कपि नाही जोन तु महि जीत रन माही परम क्रोध मी जहि सब हाथा आय सुकन देही रघुनाथा सो सही सिंधु सहित झस व्याला पुर हि नता
भरी कुदर विशाला मर्दी गर्द मिल वही दस सीसा ऐसे ही बचन कह सब कीसा गर जही तर जही सहस अंखा मान ग्रस चहत है लंका सहज सूर कपि भालू सब पुनि सर पर प्रभु राम रावण काल कोट कहू जीती सक संग्राम राम तेज बल बुद्धि विपुला शेष सहस सत स कही न गाई सकसर एक शोष सत सागर तव भ्रात ही पूछे उ न नागर सासु वचन सुनि सागर पाही मागत पंत कृपा मन माही सुनत बचन पह सा दस सीसा जो अस मति सहायक कृत कीसा सहज भीरु कर वचन ढूढ़ई सागर सन ठानी मचला मूढ़ मृषा
का करसी बढ़ई रिपु बल बुद्धि थाह पाई सचिव सित विभीषण जाके विजय विभूति कहां जगता के सुनि खल वचन दूतर स बाड़ी समय विचारी पत्रिका काढ रामानुज दीनी यह पाती नाथ बचाई जुड़ा बहु छाती बहसी बाम कर लीनी रावण सचिव बोली सठ लाग बचाव वातन मा निर झाई सठ जनि घाल स कुल खीस राम विरोध नव बरसी सरण विष्णु अज ईश तजी मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग होही की राम सरान खल कुल सहित पतंग सुनत सभे मन मुख मुसुकाई कहत दशानन सब ही सुनाई भूमि पराक गहत आकासा लघु तापस कर बाग विलासा कह
सुखनाथ सत्य सब बानी समझ हु छाड़ प्रकृति अभिमानी सुनहु वचन मम परि हरि क्रोधा नाथ राम सनत जहु विरोधा अति कोमल रघुवीर सुभाऊ जदपि अखिल लोक कर राऊ मिलत कृपा तुम पर प्रभु करही उर अपराध न एक धर ही जनक सुदा रघुनाथ ही दी जय इतना कहा मोर प्रभु की जय जब तेही कहा देन बैदेही चरण प्रहार कीन सटते ही नाई चरण सिरु चला सुता कृपा सिंधु रघु नायक जहां करी प्रणाम निजु कथा सुनाई राम कृपा आपनी गति पाई ऋषि अगस्त की साप भवानी राक्षस भय रहा मुनि ज्ञानी मंदी राम पद बारही बारा मुनि निज
आश्रम क पग उधारा दिने न मानत जलती जड़ गए तीन दिन बीती बोले राम सकोप तब भय बिनु होई न प्रीत लक्ष्मन बान सरासन आनु सो सो बरद विसक कसान सट सन विनय कुटिल सन प्रीति सहज कपन सन सुंदर नीति ममता रत सन ज्ञान कहानी अति लोभी सन बरती बखानी क्रोध ही सम कामी ही हरि कथा उससर बीज बए फल जथा असस कही रघुपति चाप चढ़ा यह मत लक्ष्मन के मन भावा संधाने प्रभु बिसिक कराला उठी उदधि उर अंतर ज्वाला मकर उर झस गन अकुला जरत जंतु जल निधि जब जाने कनक थार भरि मनि गन
नाना विप्र रूप आय तज माना कोट ही पई कदी फर कोटि जतन को सीच दिन न मान खगेश सुनो ट ही पई नव नीच सब सिंधु गई पद प्रभु केरे छमो नाथ सब अवगुण मेरे गन समीर अनल जल धरनी इन कई नाथ सहज जड़ करनी तब प्रेरित माया उपज सृष्टि हेतु सब ग्रंथ नि गाए प्रभु आय सु जही कह जस अई सो तही भाति रहे सुख लई प्रभु भल कीन मोहि सिक दीनी मर जादा पुनि तुमरी कीनी ढोल गवार शुद्र पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी प्रभु प्रताप में जाब सुखाई उतर ही कटकन मोरी बढई
प्रभु आज्ञा अपेल श्रुति गाई करो सुब जो तुम सुहाई सुनत विनीत वचन अति कह कृपाल मुस्काई ही विधि उतरे कपी कटुक त सु क उपाई नाथ नील नल कपि दव भाई लड़का ई रिस आशीस पाई तिनके परस किए गिरि भारे तरीही जलद प्रताप तुम्हारे मैं पुण उर् धरी प्रभु प्रभुताई करी ह बल अनुमान सहाई यही विधि नाथ पयोधि बंधाई ही यह सुज सुलोक ति गाई यही सर मम उत्तर तट बासी हत नाथ ल नर अघरा स सुन कृपाल सागर मन पीरा तुर तही हरि राम रणन धीरा एकी राम बल पौरुष भारी हरष पयो निधि भयो
सुखारी सकल चरित कही प्रभु ही सुनावा चरण बंदी पाथो दि सि धावा निज भवन गवने सिंधु श्री रघुपति यह मत भाय यह चरित कली मल हर जथा मति दास तुलसी गाय सुख भवन संचय समन दवन विषाद रघ गुण गना सकल आस भरोस गा वही सुनही संतत सठ मना इति श्रीमद राम चरित मान से सकल कलि कलश विदव सने पंचम सोपान समाप्त कलयुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्री राम चरित मानस का यह पांचवा सोपान समाप्त हुआ जय श्री राम i
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