दोस्तों नमस्कार हाथ में संविधान की कॉपी और जुबा पर बाबा साहब अंबेडकर का नाम और इस राजनीति के आसरे इस देश के भीतर जो दलित तबका है आदिवासी तबका है पिछड़ा तबका है या सीधे कहे जो हाशिए पर पड़ी हुई जातियां उनको इस देश की राजनीति के मुख्य धारा में लाकर खड़ा करने की जो कोशिश है वह भी अगर सत्ता तक नहीं पहुंचा पा रही है तो अगला सवाल कोई भी कर सकता है रास्ता बचा क्या यह रास्ते का सवाल इसलिए कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह के कार्यकाल तक में किसी भी कांग्रेसी ने हाथ में संविधान और जुबा पर बाबा साहेब अंबेडकर का नाम इस तर्ज पर कभी नहीं लिया जिस तर्ज पर मौजूदा वक्त में राहुल गांधी ले रहे हैं या फिर अतीत के कुछ और पन्नों को खोलिए तो हो सकता है आजादी से पहले और आजादी के वक्त की परिस्थितियों में नेहरू और गांधी भी इस बात को समझ गए थे इस देश में एक बड़ा तबका जो हाशिए पर है उस तबके से जुड़े हुए शख्स को ही उसका नेतृत्व देना होगा बाबा साहब अंबेडकर के साथ बावजूद इसके महात्मा गांधी के विचार और बाबा साहब अंबेडकर के विचार मेल नहीं खाते थे संविधान सभा के भीतर नेहरू के भाषणों को लेकर खुला विरोध बाबा साहब अंबेडकर ने किया और जब संविधान सभा बनी तो उसके अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद थे और उस सहमति के बाद बाबा साहब अंबेडकर को संविधान को लिखना है इस पर एक मोहर कांग्रेस ने लगाई सभी ने मिलकर लगाई यानी एक लंबी कांग्रेसी परंपरा को भी अगर आप परखे तो नेहरू हो या इंदिरा हो और इंदिरा गांधी के दौर में भी याद कीजिए जगजीवन राम उन्हें ही कांग्रेस ने आगे किया और इस परिस्थिति के बाद जब इस देश ने मंडल कमंडल की राजनीति को देखा और समझा उस दौर में जिस तरीके से दलितों के बीच कांशीराम काम कर रहे थे और उनके संघर्ष को या कहे उनकी जिंदगी जीने की जद्दोजहद को उस राजनीतिक ताकत से जोड़ना चाहते थे जहां पर दलितों के भीतर वो आक्रोश वोट की शक्ल में कांशीराम की राजनीति को सत्ता तक पहुंचा दे यह सोच कितनी बलवती थी और इसका परिणाम किस रूप में उभर कर आया यह मायावती के कालखंड को देखकर समझा जा सकता है जब मायावती सत्ता में आई और समाजवादी पार्टी को भी एक वक्त कांशीराम के साथ समझौता करना पड़ गया जिस समाजवादी पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनाव में खुले तौर पर यह कहने में कोई हिचक दिखाई नहीं थी कि अगर इंडिया गठबंधन के बीच मायावती आएंगी तो वह अलग हो जाएंगे राम गपाल यादव ने बकायदा एक इंटरव्यू में और खुले तौर पर सार्वजनिक मंच से इसका जिक्र भी किया था सवाल सबसे बड़ा यह हो चला है मौजूदा वक्त में बीजेपी जिस राजनीति को साध रही है और साधते हुए जिस तरीके से सत्ता में मौजूद है क्या उसमें 204 का राजनीतिक प्रयोग भी कमजोर इसलिए पड़ गया क्योंकि मायावती साथ नहीं थी और अगर मायावती साथ होती यानी बहुजन समाज पार्टी अगर उस इंडिया गठबंधन का हिस्सा होती तो एक झटके में इस देश के भीतर लगभग 30 सीटें क्या कम हो जाती जिसमें उत्तर प्रदेश की 10 से 15 सीटें हैं क्योंकि जहां-जहां बीजेपी या उसके अपने एनडीए गठबंधन के नेताओं को जीत मिली और वह सांसद बन गए उसमें कम से कम 30 सीटें इस देश ऐसी है जहां पर मायावती के हिस्से में जो वोट गया वह वोट अगर एनडीए से निकलकर इंडिया के हिस्से में चले जाता तो फिर जो आंकड़ा बीजेपी का है वह और नीचे आ जाता तो क्या वाकई क्या शुरू में इस बात का ऐलान किया जा सकता है कि असल में इस देश में बीजेपी को सत्ता से हटाने या प्रधान मंत्री की कुर्सी की असल चाबी मायावती के पास है और इससे हटकर इंडिया गठबंधन तमाम राजनीतिक दलों के साथ खड़ा भी हो जाए बावजूद इसके वह सत्ता तक पहुंच नहीं सकती है क्योंकि इस देश में दलित वोट बैंक और खास तौर से उत्तर प्रदेश बिहार मध्य प्रदेश राजस्थान एक बड़ा कर्नाटक का हिस्सा तमिलनाडु का हिस्सा पंजाब का हिस्सा हरियाणा का हिस्सा यह बड़ा वोट बैंक अपने तौर पर बीएसपी के साथ जुड़ा है जिसकी जमीन कांशीराम ने इस देश के भीतर बनाई और वह सोच बाबा साहब अंबेडकर ने जो संविधान के जरिए रखी और संविधान सभा के भाषणों में कई मौकों पर इस बात का जिक्र किया कि जब तक इस देश में आर्थिक समानता होगी नहीं तब तक संविधान की किताब का कोई मतलब नहीं है इसमें लिखे शब्दों का कोई मतलब नहीं है और ध्यान दीजिए राहुल गांधी लगातार भारत जोड़ो यात्रा और उसके बाद की परिस्थितियों के बीच जिस जाति जनगणना और संविधान और बाबा साहेब अंबेडकर का जिक्र कर रहे हैं उसमें वह स्थाई समाधान खोज रहे हैं राजनीतिक तौर पर वह चाहते हैं इस देश के भीतर यह सोच कम से कम उन समाज के भीतर विकसित हो जाए जो हाशिए पर है लेकिन एक बड़ा फर्क है कांशीराम जिन बातों का जिक्र करते थे और मायावती ने राजनीतिक तौर पर पर गांव-गांव घूमकर जिन बातों का जिक्र किया उसका माददा यही था कि इस देश के दलितों को एकजुट होना है उनकी तादाद अच्छी खासी है यूपी में तो 18 फीसद 19 फीसद है और अगर वह एकजुट होकर सत्ता परिवर्तन कर सकते हैं तो सत्ता उनके हाथ में होगी राहुल गांधी कहते हैं कि आपको खुद जागना है क्योंकि इस देश को सत्ता चलाने वालों के बीच आप है ही नहीं और जब तक आप आप खुद नहीं जागेंगे और राजनीतिक तौर पर एक ऐसी सत्ता का निर्माण करने के लिए आगे नहीं बढ़ेंगे जहां पर आपके समाज आपके समुदाय आपकी सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक परिस्थितियों को लिए हुए तबका इस देश की राजनीति को ना पलट दे तब तक आपके अनुकूल रास्ता बनेगा नहीं इन दो लकीरों में दो फर्क है राहुल गांधी सत्ता तक पहुंचने का रास्ता नहीं खोज रहे हैं वो समाज के भीतर एक बदलाव खोज रहे हैं वह भी राजनीतिक दृष्टिकोण से इससे पहले कांशीराम और मायावती सत्ता का रास्ता खोज रही थी वह सामाजिक बदलाव का रास्ता नहीं खोज रही थी सत्ता के आसरे समाज के भीतर किन्हें कैसे खड़ा होना है क्योंकि मायावती ने अगर सबसे ज्यादा टिकट किसी को दी वह दो समाज के लोग थे एक तरफ माइनॉरिटी थी दूसरी तरफ ब्राह्मण समाज था क्योंकि उन्हें पता था उनका अपना वोट बैंक इंटैक्ट है वह बिखरे नहीं नहीं क्योंकि जो बातें लगातार एक परिस्थिति के साथ सामाजिक आर्थिक स्थितियों के साथ लोगों से जुड़ती चली गई मायावती उसी तबके से आती है कांशीराम उन्हीं समाज के भीतर के व्यक्ति हैं लेकिन राहुल गांधी नहीं है बावजूद इसके कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है कांग्रेस की पूरी राजनीतिक धारा को मौजूदा वक्त में राहुल गांधी ने बदल दिया है लेकिन इन सबके बावजूद भी वह कौन सी परिस्थिति है जिसमें इस देश में प्रधानमंत्री कि कुर्सी की चाबी मायावती के पास है और मायावती किसी हाल में ना कांग्रेस से मिल सकती है ना इंडिया गठबंधन के साथ खड़ी हो सकती है यह काम प्रधानमंत्री कुर्सी पर बैठे हुए प्रधानमंत्री मोदी हो या फिर उस कुर्सी पर बैठाने की मशक्कत करने वाले अमित शाह हो या बीजेपी अपने राजनीतिक तौर पर जिस उम्मीद और भरोसे के आसरे मौजूद है उसमें उनके लिए चेहरा इस वक्त मोदी और शाह का ही है तो इनकी पूरी राजनीतिक परिस्थितियां शायद इस बात की इजाजत देंगी ही नहीं कि मायावती किसी भी हालत में शिफ्ट हो जाए राहुल गांधी इंडिकेट कर रहे थे जब वह रायबरेली में थे और सवाल जवाब संवाद हो रहा था उन्होंने कहा इसके पीछे ईडी हो सकती है सीबीआई हो सकती है पेगासस हो सकता है लेकिन सवाल यह है कि इस देश के भीतर में अगर वाकई मायावती के पास चाबी है प्रधानमंत्री की कुर्सी की तो क्या ईडी सीबीआई और ईडी और अपने तौर पर पेगासस के जो स्थितियां थी उसमें इन हालातों से दोचा होकर मायावती क्या रिस्क नहीं लेंगी या रिस्क ले सकती हैं या फिर उन्हें भरोसा नहीं है या फिर इंडिया गठबंधन के भीतर का कांट्रडिक्शन या अंतर्विरोध इतना बड़ा है कि उसमें मायावती अपने जमीन को टटोल नहीं पा रही है क्योंकि सामने समाजवादी पार्टी खड़ी है उन परिस्थितियों पर आए उससे पहले हमें लगता है राहुल गांधी ने जिस बात का जिक्र जिस तर्ज पर किया तो क्या उन्होंने खुले तौर पर मान लिया इस देश के भीतर में सत्ता की चाबी मायावती के पास है प्रधानमंत्री की कुर्सी की चाबी मायावती के पास है इसीलिए वह सॉफ्ट कॉर्नर कांशीराम को लेकर रखते हैं जिस कांशीराम ने शुरुआती दौर में ही कांग्रेस पर निशाना साधा था और आज भी गांव गांव बीएसपी जब घूमती है उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार करने के लिए तो वह कहती है बाबा अंबेडकर का अपमान कांग्रेस ने किया था और वह कांग्रेस जिसने आजादी के बाद से इस बात को समझ लिया कि वह अपने बूते यानी नेहरू गांधी परिवार खुद को दलित मानकर राजनीति नहीं कर सकता है वह अपने भीतर और अपनी पार्टी के भीतर अलग-अलग समुदाय विशेष को जगह दे सकता है जिसके आसरे वह अपने आप को एक स्टेट्समैन के तौर पर रख पाए लेकिन यहां परिस्थितियां उलट क्यों हो गई इसको परखने से पहले राहुल ी ने जो कहा उस बात को एक बार सुनिए जरूर य तो कहना पड़ेगा कांशीराम जी ने नीव रखी जी सर और बहन जी ने काम किया जी य तो मैं भी मानता मगर एक सवाल है सर बहन जी आजकल चुनाव ठीक से क्यों नहीं लड़ य भी स जी सर अब हमने हम चाहते थे बहन जी बीजेपी के विरोध में हमारे साथ लड़े मगर मगर मायावती जी किसी ना किसी कारण नहीं लड़ तो ये ये भी मतलब हमें तो काफी दुख लगा क्योंकि अगर तीनों पार्टिया एक साथ हो जाती तो बीजेपी कभी नहीं हो सकता है राहुल गांधी के जहन में उत्तर प्रदेश की सियासत वहां की राजनीति वहां का वोट बैंक उसका जोड़ तोड़ और हिसाब किताब के लिहाज से आंकड़ों पर दृष्टि हो और वह कह रहे हो कि दरअसल मायावती साथ होती तो फिर चुनाव परिणाम अलग होते उस दिशा में हो सकता है वह ना सोच पा रहे हो कि इस दौर में भी कांग्रेस और खुद राहुल गांधी की मौजूदगी इस देश की सियासत को साधने के लिए कैसी होनी चाहिए जहां पर इस देश में उनकी अपनी भूमिका नेहरू से इंदिरा और इंदिरा से राजीव गाधी ी और मौजूदा वक्त की परिस्थिति में यह देश जब अलग-अलग संकटों से जूझ रहा है तो उसमें उनकी भूमिका क्या सिर्फ और सिर्फ जाति जनगणना और जाति के इर्दगिर्द घुमड़ वाली राजनीति में सिमटी हुई हो यह दो अलग-अलग रास्ते हैं लेकिन राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश को लेकर अगर सोचा तो वहां का आंकड़ा कहता क्या है 2019 के लोकसभा चुनाव को अगर याद कीजिएगा उस वक्त समाजवादी पार्टी और बीएसपी यानी मायावती दोनों मिलकर ल थे कांग्रेस अलग लड़ी थी बीजेपी अलग लड़ रही थी समाजवादी पार्टी और बीएसपी को मिलकर जो वोट परसेंटेज इनका उस वक्त में था वह लगभग 38 39 पर था और इनको 15 सीटें मिली थी मायावती 10 सीटों पर उनके सांसद जीते और पांच पर समाजवादी पार्टी के जीते आरोप प्रत्यारोप लगे किसका वोट ट्रांसफर नहीं हुआ आज उस पर मत जाइए लेकिन अगर 2019 के चुनाव में कांग्रेस के भी 65 पर आप जोड़ देते हैं तो वह भी 44 पर होता है और बीजेपी ने अपने बूते 2019 में 49. 9 यानी तकरीबन 50 पर वोट हासिल किए थे यानी वोट के लिहाज से 2019 में तीनों मिल भी जाते तो भी बीजेपी लगभग 6 पर आगे थी लेकिन खेल बदलता है 2024 में और 2024 के भीतर का सच यह है कि 50 पर से ज्यादा वोट समाजवादी पार्टी कांग्रेस और मायावती की बीएसपी को मिलते हैं तीनों के वोट परसेंटेज को अगर मिलाइए तो यह 53 पर है यानी समाजवादी पार्टी 37 सीटों पर जीत गई कांग्रेस छह सीटों पर जीत गई मायावती को एक भी सीट नहीं मिली लेकिन मायावती का वोट और कांग्रेस का वोट लगभग बराबर कांग्रेस का 9. 53 पर बीएसपी का 9.
46 पर समाजवादी पार्टी जरूर 33. 8 4 पर तक ले गई जो उसके अपने राजनीतिक करियर में एक रिकॉर्ड बन गया लेकिन यहां पर सवाल यह है क्या वाकई लोकसभा चुनाव में अगर मायावती साथ होती तो स्थिति बिल्कुल अलग होती यकीन जानिए जितने वोट मायावती को लगभग 10 से 15 सीटों पर मिले अगर वह सीट इंडिया गठबंधन में जुड़ जाते तो बिजनौर मेरठ फतेहपुर अमरोहा अलीगढ़ शाहजहांपुर हरदोई मिसिक उन्नाव फूलपुर अकबरपुर फरुखाबाद डुमरियागंज देवरिया बांसगांव भदोही मिर्जापुर इन तमाम जगहों पर बीजेपी नहीं जीत पाती यानी एक झटके में लगभग 12 सीटें से 15 सीटों के बीच का नुकसान उत्तर प्रदेश में बीजेपी को और हो जाता और इस देश के भीतर की राजनीति को अगर आप टटोली तो उसमें पंजाब उसमें महाराष्ट्र उसमें मध्य प्रदेश उसमें हरियाणा उसमें छत्तीसगढ़ इ तमाम जगहों पर और बिहार की भी दो सीटों पर असर पड़ता तो क्या मायावती के पास इस देश की चाबी उत्तर प्रदेश की सियासत की चाबी क्योंकि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव 2027 में होने हैं और इससे पहले के चुनाव को भी अगर आप परखे तो उसमें कांग्रेस बीएसपी और समाजवादी पार्टी तीनों के वोट को अगर आप मिला देते हैं तो बीजेपी से तकरीबन 6 पर वोट ज्यादा हो जाएंगे कांग्रेस को सिर्फ 2. 33 फीस वोट मिले थे दो सीटें मिली थी बीएसपी को सिर्फ 1 पर एक सीट मिली थी और लगभग 12 13 12.
8 पर यानी कांग्रेस और बीएसपी तीन सीटें जीत पाती हैं लेकिन दोनों का वोट बैंक लगभग 15 पर तक है और दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी जो 32 फीदी वोट लेती है तो उसमें अगर यह जोड़िए तो यह 47 पर और सत्ता में इस वक्त योगी आदित्यनाथ हैं उनको 41.